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वैचारिक विविधता भारतीय जीवनशैली है
By Deshwani | Publish Date: 3/3/2017 11:59:15 AM
वैचारिक विविधता भारतीय जीवनशैली है

हृदयनारायण दीक्षित

आईपीएन। वैचारिक विविधता भारतीय जीवनशैली है। भारत स्वाभाविक रूप में जनतंत्री है। यहां के प्राचीन इतिहास में भी जनतांत्रिक संस्थाएं रही हैं। वैदिक काल में भी सभा और समितियां रही हैं। वाद विवाद और संवाद रहे हैं। इनका उद्देश्य लोकमंगल ही रहा है। प्रतिरोध का उद्देश्य भी लोकमंगल होना चाहिए। निरूद्देश्य प्रतिरोध का कोई मतलब नहीं। दिल्ली रामजस कालेज से जुड़ें प्रसंगों में प्रतिरोध के उद्देश्य खतरनाक हैं। भारत संप्रभु राष्ट्र राज्य है। प्रतिरोध सहित विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उपभोग का आनंद हम सबका मौलिक अधिकार है लेकिन यह आनंद भारत की संप्रभुता के भीतर है। मूलभूत प्रश्न है कि जब भारत ही नहीं होगा तो इस विचार अभिव्यक्ति और प्रतिरोध का आनंद हम सब कहां उठाएंगे? ताजा प्रतिरोध में भारत की संप्रभुता को ही चुनौती दी गई है? 
आधुनिक भारत और उसका राष्ट्र-राज्य क्षेत्र हमारे पूर्वजों के सचेत और अचेत कर्मो का प्रसाद है। भारतीय संविधान के प्रति निष्ठा हम सबका कत्र्तव्य है। संविधान निर्माता हमारे अग्रज पूर्वज ही थे। संविधान सभा में भी असहमति और प्रतिरोध के अवसर थे। देश के नाम (अनुच्छेद 1) पर भी गंभीर बहस हुई थी। आर्यावर्त, भारत, इण्डिया, आदि अनेक नाम बहस में थे। संविधान निर्माताओं ने अनेक संवैधानिक संस्थाएं गढ़ी। विधायिका, संसद, कार्यपालिका सरकार व स्वतंत्र न्यायपालिका भारतीय संसदीय जनतंत्र के आधार स्तम्भ हैं। स्वतंत्र निर्वाचन आयोग व सी0ए0जी0 सहित ढेर सारी संवैधानिक संस्थाओं से देश का कामकाज चलता है। राजनैतिक दलतंत्र प्रतिरोध और पक्ष प्रतिपक्ष की अभिव्यक्ति की संस्थाएं हैं। बेशक ऐसी संस्थाएं स्वयंपूर्ण नहीं हैं। संशोधन परिवर्द्धन की गुंजाइश बनी ही रहती है। लेकिन भारत के किसी भूभाग की स्वतंत्रता की मांग प्रतिरोध नहीं हो सकती। प्रतिरोध के झंडाबरदार मार्गदर्शन करें कि भारत की संप्रभुता पर हमला करना अपराध क्यों नहीं है? विचार अभिव्यक्ति और प्रतिरोध की सीमा आखिरकार है क्या? क्या देश तोड़ने की नारेबाजी सिर्फ प्रतिरोध ही है?
विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान ने दी है। राष्ट्र राज्य इस स्वतंत्रता का संरक्षक है। इस स्वतंत्रता का दुरूपयोग किसी साधारण व्यक्ति के भी अपमान में नहीं हो सकता। क्या भारत एक व्यक्ति जैसा भी नहीं है? “भारत तेरे टुकड़े होंगे” के नारे भारत नाम की जीवमान सत्ता के लिए सीधी धमकी है। रामजस कालेज में आमंत्रित उमर खालिद की विचारधारा भारत को एक राष्ट्र नहीं मानती। अफजल और बुरहान अली जैसे आतंकियों से उसकी प्रीति जगजाहिर है। खालिद का विरोध स्वाभाविक था। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने इसका विरोध किया। विरोध के विरोध या प्रतिरोध में ‘बस्तर मांगे आजादी/कश्मीर मांगे आजादी/छीन के लेंगे आजादी’ जैसे नारे लगे। भारत की अस्मिता और संप्रभुता को रौंदने वाली ऐसी धमकियां भारतीय राष्ट्र राज्य से युद्ध की श्रेणी में आती हैं। 
कोई भी राजव्यवस्था आदर्श नहीं होती और समाज व्यवस्था भी नहीं। राज और समाज प्रायः यथास्थितिवादी होते हैं। बेहतर राज और आदर्श समाज के लिए स्थापित व्यवस्थाओं का प्रतिपक्ष जरूरी होता है। वैदिक साहित्य का “नेति-न इति” यही भाव प्रकट करता है। सुन्दर से भी सुन्दर की लब्धि अंतिम नहीं होती। स्वप्नद्रष्टा सामाजिक कार्यकर्ता और चिन्तक सर्वोत्तम के सृजन में लगे ही रहते हैं। वे स्थापित राज और समाज व्यवस्था में सार्थक सुधार के लिए प्रतिरोध करते हैं। मनुष्य की गरिमा महिमा और स्वतंत्रता का आदर आदिम अभीप्सा है। यूनानी समाज में दार्शनिक थेल्स (624-550 ई0पू0) ने सृष्टि को जल से उद्भूत बताया था। बुद्ध इसके पहले (566-486 ई0पू0) है। बुद्ध ने सृष्टि और समाज की नई व्याख्या की थी। कपिल (700-600 ई0पू0) का सांख्य दर्शन प्रकृति की वैज्ञानिक व्याख्या है। यूनानी दार्शनिकों में जेनोफेनस, हिराक्लिटस, पाईथागोरस के चिंतन सतत् सोच के विकास हैं पर सुकरात का प्रतिरोध आस्था को चुनौती था। प्लेटो के ‘रिपब्लिक’ में आदर्श गणतंत्र की धुंधली रूपरेखा है पर गंभीर रूप में विचारणीय है। 
असहमति की अभिव्यक्ति से ही दर्शन और विज्ञान का विकास हुआ है। वामपंथी विचार का विकास और प्रसार असहमति की हिंसात्मक अभिव्यक्ति में हुआ। यहां विचार के लिए मानवीय अस्मिता की उपेक्षा हुई। वर्तमान भारतीय परिदृश्य में वामपंथी संगठन और प्रतिबद्ध विद्वान ही प्रतिरोध और असहिष्णुता के प्रश्न उठा रहे हैं। उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या चीन के किसी विश्वविद्यालय में प्रतिरोध और विचार अभिव्यक्ति के नाम पर किसी भूक्षेत्र को देश से अलग करने/चीन से स्वतंत्र होने की नारेबाजी संभव है? चीन में वामपंथी राजव्यवस्था है। प्रतिरोध के अवसर वामपंथ की मुख्य मांग हैं। भारत से कश्मीर या बस्तर अलग करने की मांग अगर प्रतिरोध या विचार अभिव्यक्ति की श्रेणी में आती है तो ऐसी ही अलगाववादी मांगो के समर्थन में चीन या क्यूबा जैसे देशों पर प्रतिरोध के अवसर क्यों नहीं हैं?
विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत की मूल संस्कृति है। भारत का धर्म भी शास्त्रार्थवादी है। यहां ईश्वर और देव आस्थाएं भी प्रश्नों के घेरे में रही हैं। जिज्ञासा ही विज्ञान और दर्शन की जननी है और अतिरिक्त जिज्ञासा है भारतीय संस्कृति की आत्मा। भारतीय संस्कृति का विकास अतिरिक्त उत्पादन से नहीं ‘अतिरिक्त जिज्ञासा’ में हुआ। माक्र्सवादी चिन्तक डाॅ0 रामविलास शर्मा की बात पर ध्यान दें तो “भारतीय संस्कृति का मूल स्रोत ऋग्वेद है।” (भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश खण्ड 2 पृष्ठ 650) ऋग्वेद लगभग 400 ऋषियों कवियों कथनों का संकलन है। ऋग्वैदिक कथनों में वैचारिक विविधता है। यहां परमव्योम जैसे अनंत जिज्ञासा वाले क्षेत्रों पर विचार हैं तो गजब का इहलोकवाद और भौतिकवाद भी है। प्रकृति के बारे में प्रश्नाकुलता है। भौतिक जगत के रहस्यों पर अतिरिक्त जिज्ञासा है। देव शक्तियों पर भी प्रश्न हैं। विश्वकर्मा नाम के देवता जगत निर्माता हैं। कवि पूछते हैं “आप जगत् निर्माण के समय कहां बैठे? अधिष्ठान क्या था? जब जगत नहीं था तो आप सृष्टि निर्माण की सामग्री कहां से लाए?” सूर्य के बारे में जिज्ञासा है कि वे बिना आधार कैसे लटके हैं? एक विचार था कि यज्ञ से सारे काम सिद्ध होते हैं। उपनिषद् में विचार है कि यज्ञ की नौका में छेद ही छेद हैं। यज्ञ डुबा देगा।”
प्रतिरोध और असहमति विचार और कर्म स्वातंन्न्य के खूबसूरत उपकरण हैं। लेकिन भारत की अस्मिता, राष्ट्र राज्य की संप्रभुता के भीतर हैं। भारतीय संविधान और उसकी संस्थाआंे को तहस नहस करना प्रतिरोध नहीं है। आतंकियों को फांसी की सजा सुनाने वाली सर्वोच्च न्यायपीठ को भी अपशब्द कहना प्रतिरोध नहीं कहा जा सकता। भारत की एकता, अखण्डता और संप्रभुता को चुनौती देना भी प्रतिरोध नहीं है। कथित प्रतिरोध के दुराग्रही मित्र मार्गदर्शन दें कि क्या वे भारतीय राष्ट्र को खण्ड खण्ड तोड़ने को ही प्रतिरोध का लक्ष्य मानते हैं? यदि हां! तो ऐसे प्रतिरोध के विरूद्ध भारत भक्त लामबंद होंगे ही। अच्छा हो कि हम सब भारतीय संस्कृति, अर्थव्यवस्था, सामाजिक गैरबराबरी, रोजगार के अवसर आदि मूलभूत राष्ट्रीय चुनौतियों पर वाद-विवाद संवाद करें, विरोध प्रतिरोध करें। संविधान की उद्देशिका में आए “हम भारत के लोग” का सम्मान करें। 
(लेखक चर्चित स्तम्भकार हैं। उपयुक्त लेख लेखक के निजी विचार हैं। आवश्यक नहीं है इन विचारों से आईपीएन भी सहमत हो।)
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