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आजाद भारत में आजादी की मांग क्यों
By Deshwani | Publish Date: 2/3/2017 3:57:49 PM
आजाद भारत में आजादी की मांग क्यों

प्रभुनाथ शुक्ल

आईपीएन। देश भक्ति की भाषा और परिभाषा क्या होती है आज इसका विश्लेषण मुश्किल हो चला है। आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समानार्थी शब्द के रुप में परिभाषित किया जाने लगा है। यह समझना मुश्किल है की यह अभिव्यक्ति का अतिवाद है या फिर संक्रमणकाल। आजाद देश में आजादी का सवाल क्यों उठ रहा है। यह बौद्धिकता का टकराव है या फिर वामपंथ बनाम दक्षिण पंथ का अघोषित प्रयोगवाद। जेएनयू कैंपस से उठा आजादी और अभिव्यक्ति की सूनामी कश्मीर, बस्तर से गुजरती डीयू पहुंच गयी। भारत में कुछ लोगों को आजादी चाहिए। इस आजादी का पैमाना क्या है, उन्हें कैसी आजादी चाहिए यह पता नहीं। वाम और दक्षिणपंथ का वैचारिक मतभेद राष्टवाद, अभिव्यक्ति और आजादी की नई परिभाषा गढ़ता दिखता है। खुद वैचारिक परिभाषा में स्वयं पिछड़ता देख सेक्युरवाद भी वामपंथ से वैचारिक गठजोड़ करता दिखता है। 
आज की साइबर दुनिया ने वैचारिकता स्वतंत्रता नया मंच दिया है। एक ऐसा मंच जहां कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है, यहां आजादी के अबाध अवसर हैं और स्वंयभू नीति। भारत में राष्टवाद का प्रेम पिछले तीन सालों के भीतर अधिक उछाल में आया है। कौन देश भक्त हैं और राष्टद्रोही यह सवाल बात-बात पर उभरने लगा है, जब से संघीय विचारधारा और दक्षिणपंथ की सरकार क्षैतिज पर उभरी है। वामपंथ उसे पचा नहीं पा रहा है। अभिव्यक्ति का भी सांप्रदायी करण हो चला है। यहां मैं साफ कर देना चाहता हूं इस पूरे द्वंद्व राष्टवाद, अभिव्यक्ति और उसकी आजादी मोहरा है। यह लड़ाई दो घटकाकें के बीच लड़ी जा रही है। जिसका एक सिरा वामपंथ दूसरा दक्षिणपंथ है यानी एक तरफ हिंदुत्व और सेक्युलरवाद।
दिल्ली के लेडी श्रीराम कालेज में पढ़ने वाली छात्रा गुरमेहर कौर की पीड़ा जायज हो सकती है। कारगिल युद्ध में पिता को खोने की पीड़ा उन्हें दुःख पहुंचाता है। यह सिर्फ कौर का दर्द नहीं उन लाखों हिंदुस्तान के उन फौजी परिवारों की पत्नी, बेटे-बेटियां, मां-बाप, भाई-बहन की है। जिन्होंने अपने परिजनों को कारगिल युद्ध, आतंकी हमलों और सीमा की सुरक्षा के दौरान बर्फीले तूफान में गंवा दिया है। पूरा देश उनकी भावनाओं का सम्मान करता है। लेकिन यह कहना की पाकिस्तान ने उनके पिता को नहीं मारा, बल्कि जंग ने मारा। यह उचित नहीं है। क्योंकि जंग भारत की मजबूरी थी शौक नहीं। पठानकोट जैसे हमले न होते तो शायद सर्जिकल स्टाइक भारत को नहीं करनी पड़ती। भारत सीमा विस्तार में विश्वास नहीं रखता है। लेकिन बलात्कार की धमकी देना भी संविधान के खिलाफ है।
निश्चित तौर पर अभिव्यक्ति की आजादी होनी चाहिए। लोगों के बीच संवाद होने चाहिए। लेकिन उसकी लक्ष्मण रेखा क्या हो, इस पर भी बहस चाहिए। राष्टवाद, अभिव्यक्ति और आजादी पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। लेकिन राजनीति के लिए यह सब किया जा रहा है। लोगों में देश भक्ति का बुखार चढ़ा है। शायद यही अभिव्यक्ति का अतिवाद और अघोषित युद्ध है। लोगों में देशभक्ति और देशद्रोह पर होड़मचा है। हलांकि गुरमेहर कौर इस पूरे घटनाक्रम से अपने को अलग कर लिया और दिल्ली भी छोड़ दिया। हलांकि पुलिस ने इस पूरे मामले में बलात्कार की धमकी देने वालों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया है।
लेकिन जेनएयू में वामपंथ और दक्षिणपंथ की अंकुरीति फसल अब डीयू के रामजस कालेज में लहलहाने लगी है। एनयूएसआई और एबीवीपी में देश भक्ति की होड़ लगी है। कोई तिरंगा मार्च निकाल रहा है तो दूसरा सेव डीयू की बात कर रहा है। रिजूजू के बयान के बाद तो पूरी राजनीति में आग लग गयी। इस पूरी लड़ाई में दो विचारधाओं की टकराहट साफ दिखने लगी है। 
शैक्षणिक संस्थानों को विचारधाराओं की टकराहट का केंद्र बनाया जा रहा है। राजनीतिक संस्थाओं को यह अच्छी तरह मालूम है की ऐसी संस्थाएं अलगाववादी विचारधाराओं को खाद-पानी देने लिए उपयुक्त स्थल हैं। जिसकी वजह ऐसी संस्थानों का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है। बड़ा सवाल है कि अभिव्यक्ति की जंग में नुकसान किसका हो रहा है। जेएनयू की कथित आजादी आपके जेहन में अभी ताजा होगी। अफजल हम शर्मिंदा हैं तेरे कातिल जिंदा हैं। भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह... भारत की आजादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी...हमें क्या चाहिए आजादी... आजादी...। आजादी के हिमायती क्या कुछ ऐसी ही आजादी चाहते हैं। वह कश्मीर और बस्तर को भारत से अलग करना चाहते हैं। यह सच है तो भारत उस आजादी की हिमायत कभी नहीं कर सकता।
भारत एक संप्रभु राष्ट है ,यहां सभी समुदाय, जाति, धर्म, भाषा और लिंग की स्वंतत्रता अक्षुण्य है। भारत जैसी आजादी शायद पूरी दुनिया में नहीं है। यहां देश विरोधी नारे लगाने की पूरी आजादी है। सैनिकों पर पत्थर डालने और गाली देने की आजादी। कश्मीर में तिरंगे को जलाना, पैरो तले रौंदना और आईएसआई के झंडे लहराने की आजादी शायद पाकिस्तान में मिल पाए। क्या उत्तर कोरिया, पाकिस्तान और अरब मुल्कों या दुनिया के किसी भी देश में अफजल और कसाब के हिमायतियों को ऐसी आजादी नहीं मिल सकती। वह कश्मीर की आजादी चाहते हैं लेकिन भारत की अक्षुण्यता नहीं। वह अफजल, बुरहानवानी जैसे चरपंथियों को कश्मीरी युवाओं का आइडियल बताते हैं जबकि राष्टरक्षक सैनिकों पर पत्थर डालते हैं। पीएम की तरस्वीर पर जूते मरवाना। लोगों के चेहरे पर स्याही डालना। राजनेतओं पर जूते डालना। दिल्ली की सड़कों पर चलती कार में बलात्कार करना। संसद से लेकर सड़क तक दागी और बाहुबलियों का बोलबाला। गुरमेहर और दंगल में गीताफोगट की भूमिका निभाने वाली उस कश्मीरी लड़की को सोशलमीडिया पर बलात्कार की धमकी देने वाले चरमपंथियों को ऐसी आजादी का विसाल भू-पृष्ठ कहां मिलेगा। निश्चित तौर पर विचारधाराओं की पनपती विषवेलें अलगाववाद को बढ़ावा दे रहीं। जिसका खामियाजा देश और उकसे लोगों को उठना पड़ रहा है। राष्टवाद, सेना और उसके सम्मान को सत्ता और कुर्सी का खेल बना दिया गया है। यहां संविधान, संसद और कानून से अलग समानांतर व्यवस्था चलती है। राजनैतिक संस्थाओं ने देश की आबोहवा में जहरघोलने का काम किया है। जिसकी तस्वीर हमारे सामने जेएनयू, डीयू, कन्हैया कुमार, रोहित बेमुला के रुप में है। यह अभिव्यक्ति और उसकी आजादी का अतिवाद है। अब वक्त आ गया है जब अभिव्यक्ति और उसकी आजादी की लक्ष्मण रेखा तय होनी चाहिए साथ ही देश भक्ति बनाम देशद्रोह की राजनीति भी बंद होनी चाहिए। लेकिन संवाद कायम रहने चाहिए। 
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। उपुर्यक्त लेख लेखक के निजी विचार हैं। आवश्यक नहीं है कि इन विचारों से आईपीएन भी सहमत हो।)
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