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क्या संभावना तलाशने को ‘होली-बाद’ यूपी में लगेगा राष्ट्रपति शासन?
By Deshwani | Publish Date: 25/2/2017 3:34:40 PM
क्या संभावना तलाशने को ‘होली-बाद’ यूपी में लगेगा राष्ट्रपति शासन?

देवेश शास्त्री 

आईपीएन। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के 7 चरणों में से 4 चरण पूरे हो चुके हैं, शेष तीन चरण भी डेढ़ सप्ताह में निपट जायेंगे और ठीक पन्द्रहवें दिन (फाल्गुन शुक्ल चैदस) 11 मार्च को परिणाम आ जायेगा। फिलहाल सत्ता के तीनों दावेदार भाजपा, बसपा व सपा-कांग्रेस गठबंधन एक स्वर में 300 सीटें जीतने का दावा कर रही हैं। चूंकि मतदान प्रक्रिया के बीच किसी तरह हवा के रुख को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता, किन्तु नेताओं के भावात्मक आवेश, अमर्यादित शब्दाबली एवं सत्ता के तीनों दावेदारों के निरंतर बनते-बिगड़ते आन्तरिक हालात निश्चित रूप से ‘‘त्रिशंकु विधानसभा’’ के संकेत जन-जन की जुवां से सुने जा सकते हैं। स्वयं सीएम अखिलेश यादव भी अतीत को याद कर चुनाव बाद ‘रक्षाबंधन’ (भाजपा-बसपा गठजोड़) मनाने की संभावना जता चुके हैं, जिसपर बतौर सफाई बसपा सुप्रीमो मायावती को मुस्लिम वर्ग के बिखरने के डर से हरगिज भाजपा का साथ न देने की वचनबद्धता दोहराते देर नहीं हुई, वे बाली- ‘‘अकेली सत्ता तक न पहुंची ता विपक्ष में बैठना उचित होगा। भाजपा का न तो साथ देंगे और न लेंगे।’’ इस बीच चुनावी प्रक्रिया  शुरू होने से पहले भातृधर्म और पितृधर्म के द्वन्द में फंसे रहने और तदुपरान्त अबतक नेताजी की ‘‘कभी इधर कभी उधर’’ मनोधारणा  से सपा-कांग्रेस गठबन्धन पर ग्रहण लग रहा है। ‘‘त्रिशंकु विधानसभा’’ आई तो संभावना तलाशने के लिए ‘‘होली-बाद’’ यूपी में राष्ट्रपति शासन के संकेत हैं।

2012 में गठित विधानसभा का स्वरूप देखें तो सताधारी सपा के 224 और कांग्रेस के 28 सदस्य हैं जबकि मायाबती की बसपा के 80 और भाजपा के मात्र 47 हैं। अब तीनों के 300 प्लस सम्बन्धी दावों के आधार को देंखें तो सपा-कांग्रेस गठबंधन केा 224$80: 304 की यथास्थिति को दर्शाता है, जबकि सपा की आन्तरिक कलह में अधिकृत सपा और कथित ‘‘मुलायम के लोगों’ की पारस्परिक नकारात्मक गतिविधियां ‘‘गठबंधन’’ को 300 के आधे अंक 150 से 180 तक ले जा सकती हैं। पिछले नतीजों से उलट-पलट के जन रूझाव से आश्वस्त मायावती अपने 80 के आंकड़ों को चार गुना होने की प्रत्याशा में 300प्लस का दावा कर रही हैं। हवा के रुख से वे भी माइनस 200 में सिमटती नजर आ रही हैं। जहां तक भाजपा के दृष्टिकोण का सवाल है तो 2014 के लोकसभा चुनाव की ही लहर में उसे भी 300 प्लस की उम्मीद है, किन्तु कहीं वह भी माइनस 200 में ही न सिमट कर रह जाये। इसी आधार पर ‘‘त्रिशंकु विधानसभा’’ की बात कही जाने लगी है। 

‘त्रिशंकु विधानसभा’’ की अटकलों में गुणा-भाग में लगे सियासी पंडित संभावनायें तलाश रहे हैं। कुछ कहते हैं कि ‘त्रिशंकु विधानसभा’’ की स्थिति में बसपा$भाजपा सरकार बन सकती है। तो कुछ मानते हैं कि प्रोफेसर साहब की पहल पर सपा$कांग्रेस का गठबंधन भंग कर सपा$भाजपा सत्तारूढ़ हो सकती है। बहुतेरे पंड़ितों का गणित सपा के उपेक्षित राजनेता शिवपाल सिंह यादव के उस संकेत ‘‘11 मार्च के बाद नई पार्टी बनाऊंगा।’’ के आधार पर सपा के निर्वाचित विधायकों के एक तिहाई गुट के टूटकर बसपा के साथ सरकार में भागीदार होने का गणित भिड़ा रहे तो कुछेक गेस्टहाउस प्रकरण को संज्ञान में लेते हुए बसपा के साथ शिवपाल के जाने की संभावना को नकारते हुए सपा$कांग्रेस के समानान्तर विभाजित शिवपाल गुट$भाजपा के सत्तारूढ होेने का गणित भिड़ा रहे हैं। 

चुनावी माहौल में पीएम-सीएम के बीच चल रहे ‘‘गर्दभ-पुराण’ के महाभाष्य के बीच कुल मिलाकर हालात नाजुक हैं, होली के रंगों से नये समीकरण की इन्द्रधनुषी छटा उभरेगी। जिसके लिए ठीक 15 साल पीछे चलकर देखें कि किस तरह भाजपा ने माया की बैशाखी बनकर राखी बंधवाई और फिर नेताजी को सहारा देकर सत्तासुख दिया था। 15 साल पहले वर्ष 2002 में त्रिशंकु विधानसभा बनी थी तब उत्तर प्रदेश में बीएसपी और बीजेपी की मिली-जुली सरकार बनी। मायावती मुख्यमंत्री थीं। भाजपा के लालजी टंडन, ओमप्रकाश सिंह, कलराज मिश्र, हुकुम सिंह जैसे नेता कबीना मंत्री थे.। इसमें समाजवादी पार्टी को 143, बीएसपी को 98, बीजेपी को 88, कांग्रेस को 25 और अजित सिंह की रालोद को 14 सीटें आई थीं। किसी भी पार्टी की सरकार न बनते देख पहले तो राष्ट्रपति शासन लगा. फिर बीजेपी और रालोद के समर्थन से तीन मई, 2002 को मायावती मुख्यमंत्री बन गईं। मायावती का तर्क था कि 1989 में मुलायम सिंह भी बीजेपी के समर्थन से सरकार चला चुके हैं। और फिर उनके राज में तो अल्पसंख्यक हमेशा सुरक्षित रहते हैं।

कुछ महीनों में मायावती ने निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह ऊर्फ राजा भैया पर आतंकवाद निरोधक अधिनियम (पोटा) के तहत केस लगा दिया। राजा भैया और धनंजय सिंह उन 20 विधायकों में शामिल थे, जिन्होंने राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री से मिलकर मायावती सरकार को बर्खास्त करने की माँग की थी। इसलिए उन्हें नवंबर में ही जेल में बंद कर दिया गया था। भाजपा के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष विनय कटियार ने राजा भैया पर से पोटा हटाने की मांग की, लेकिन मायावती ने यह मांग ठुकरा दी। इस बीच दोनों दलों के बीच खटास बढ़ने की एक और वजह पैदा हो गई. ताज हैरिटेज कॉरिडोर के निर्माण को लेकर यूपी सरकार और केंद्र सरकार के बीच तनातनी बढ़ गई, क्योंकि केंद्रीय पर्यटन मंत्री जगमोहन ने बिना प्रक्रियाओं को पूरे हो रहे निर्माण के लिए यूपी सरकार को जिम्मेदार ठहरा दिया। सरकार डगमगा गई। एक कवि ने लिखा- ‘‘भ्रष्ट बेमिशाल थी, फालतू बबाल थी, ‘आगरे का ताज; लखनऊ का ताज ले गया।’’

इतने में मुलायम सिंह ने सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया. तब तक उनके पक्ष में पर्याप्त विधायक नहीं थे। इस बीचे बसपा के 13 विधायकों ने राज्यपाल से मुलाकात कर उन्हें एक पत्र सौपा। इसमें बताया गया था कि वे मुलायम सिंह यादव का मुख्यमंत्री पद हेतु समर्थन करते हैं। बसपा ने इस घटनाक्रम पर ऐतराज जताया और कहा कि उसके विधायक दल के 13 विधायकों का स्वेच्छा से अपनी पार्टी (बीएसपी) छोड़ना माना जाए, जो कि दलबदल निरोधक कानून और संविधान की 10वीं अनुसूची का उल्लंघन है, इसलिए उनकी सदस्यता खारिज की जाए। इस बीच दिल्ली में बीजेपी की संसदीय बोर्ड की बैठक में यह फैसला लिया जा चुका था कि यूपी की विधानसभा भंग करने से बेहतर विकल्प वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाना है, क्योंकि पार्टी नए चुनाव के लिए तैयार नहीं है। बसपा के 13 बागी विधायकों का समर्थन मिलते ही मुलायम सिंह ने 210 विधायकों की सूची राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री को सौंप दी और बिना समय गंवाए शास्त्री ने उन्हें शपथ ग्रहण का न्योता दे दिया।

राज्यपाल ने 29 अगस्त, 2003 को मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। उन्हें बहुमत सिद्ध करने के लिए दो हफ्ते का समय दिया गया। मुलायम सिंह यादव ने विधानसभा में बहुमत साबित कर दिया। मुलायम की इस सरकार में राष्ट्रीय लोकदल, कल्याण सिंह की राष्ट्रीय क्रांति पार्टी के अलावा निर्दलीय और छोटी पार्टियों के 19 विधायक शामिल थे. इसके अलावा उन्हें कांग्रेस और सीपीएम ने बाहर से समर्थन दिया। इस बीच, बीएसपी के 37 विधायकों नें दारुलसफा में मीटिंग की और छह सितंबर को विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी से मुलाकात कर उन्हें अलग दल के रूप में मान्यता देने की मांग की। केसरीनाथ त्रिपाठी ने उसी शाम इस विभाजन को मान्यता दे दी, जबकि 13 विधायकों के दलबदल मामले में वो अब तक कोई फैसला नहीं कर पाए थे. दरअसल वो इंतजार कर रहे थे कि बसपा से बाहर आने वाले विधायकों की संख्या कब एक-तिहाई से ज््यादा हो जाए, ताकि उनका विभाजन दलबदल कानून के दायरे में न आए।बसपा के बागी विधायकों को लोकतांत्रिक बहुजन दल के रूप में मान्यता दी गई थी, जिसका बाद में सपा में विलय हो गया था. सरकार चलाने के लिए मुलायम सिंह को एक जंबो मंत्रिपरिषद बनानी पड़ी. इसमें बसपा के तमाम बागियों को मंत्री बनाने के कारण मंत्रियों की कुल संख्या 98 हो गई। यूपी के इतिहास की यह सबसे बड़ी मंत्रिपरिषद थी, वह भी तब जब कांग्रेस और सीपीएम ने बाहर से समर्थन देते हुए, सरकार में शामिल होने से इनकार कर दिया था।

जिस भाजपा ने फरवरी, 2002 में मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया, उसी ने उन्हें सरकार बनाने में मदद की। लम्बे अर्से से मुलायम सिंह विरोधी राजनीति कर रहे अजित सिंह ने उन्हें समर्थन दिया। जो कल्याण सिंह, मुलायम सिंह को रामसेवकों की हत्या करने वाला रावण कहते थे, उन्होंने मुलायम सिंह को बहुमत जुटाने में मदद की और जिस सोनिया गांधी को मुलायम सिंह ने 1999 में प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया था, उन्होंने मुलायम सिंह की सरकार को समर्थन दिया।’’

इस राजनैतिक घटनाक्रम के ठीक 15 वर्ष बाद 2017 में वही हालात बन रहे हैं। तब भी केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार थी और आज भी है। तब त्रिशंकु विधानसभा की संभावना तलाशने को दो बार राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा था, तो इस बार भी त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में राष्ट्रपति शासन अवश्यम्भावी है, और उसी तरह भाजपा ही ‘‘किंग मेकर की भूमिका में होगी।

(लेखक देवेश शस्त्री स्वतंत्र पत्रकार व राजनैतिक समीक्षक हैं। उपर्युक्त लेख लेखक के निजी विचार हैं। आवश्यक नहीं है कि इन विचारों से आईपीएन भी सहमत हो।)

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