पटना। बुधवार को बिहार की राजनीति में दो बड़े सियासी घटनाक्रम देखने को मिले। एक तरफ सुबह जहां जीतनराम मांझी ने बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए का साथ छोड़कर राजद-कांग्रेस के महागठबंधन का हाथ थाम लिया तो वहीं शाम होते-होते कांग्रेस नेता अशोक चौधरी ने चार विधायकों के साथ पार्टी छोड़कर एनडीए का दामन थाम लिया। हिंदुस्तान अवाम मोर्चा(हम) नेता जीतन राम मांझी पूर्व मुख्यमंत्री हैं और अशोक चौधरी पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष हैं। महागठबंधन सरकार के दौर में अशोक चौधरी कांग्रेस कोटे से कैबिनेट मंत्री रहे हैं। दरअसल भले ही इसको बड़ा सियासी घटनाक्रम माना जा रहा है लेकिन इसकी सियासी बिसात पहले ही बिछ चुकी थी और ये दोनों घटनाएं एक-दूसरे की पूरक ही हैं।
नीतीश कुमार ने राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर महागठबंधन बनाया और सत्ता में तीसरी बार वापसी की। उससे पहले 2014 के लोकसभा चुनावों में बिहार में जदयू की करारी शिकस्त के बाद नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। उसके बाद जदयू ने पार्टी के दलित चेहरे जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन नीतीश के साथ उनकी बन नहीं पाई और कुछ समय बाद विधानसभा चुनाव से पहले उनको हटाकर फिर से मुख्यमंत्री बने। नतीजतन, नीतीश के साथ मांझी के रिश्तों में बेहद कड़वाहट आई गई और उन्होंने 'हम' पार्टी बनाकर बीजेपी के साथ गठजोड़ कर लिया। लेकिन बीजेपी को इसका बहुत लाभ नहीं मिला और विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी की तरफ से केवल मांझी ही जीत सके। उनके सारे प्रत्याशी हार गए और वह सियासी हाशिए पर चले गए।
2015 में महागठबंधन बनाने में कांग्रेस की तरफ से अहम भूमिका निभाने वाले तत्कालीन पार्टी प्रदेश अध्यक्ष अशोक चौधरी को सत्ता में आने के बाद कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला। नीतीश कुमार के करीबी बने। लेकिन जब नीतीश ने महागठबंधन का साथ छोड़ दिया तो राजद के साथ कांग्रेस को भी सत्ता से बाहर होना पड़ा। नीतीश ने बीजेपी से दोस्ती कर सरकार बना ली। माना जाता है कि उस दौरान भी अशोक चौधरी ने जदयू के साथ जाने का मन बनाया था, जिसके कारण उनको पार्टी अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। उसके बाद वह कई बार सार्वजनिक रूप से नीतीश की तारीफ करते रहे और नीतीश ने भी कैबिनेट मंत्री के रूप में दिए गए बंगले समेत तमाम सुविधाएं वापस नहीं लीं।
बिहार की राजनीति में ये लगातार कयास लगाए जाते रहे कि अशोक चौधरी देर-सबेर नीतीश कुमार के साथ फिर से जुड़ेंगे। वहीं जब नीतीश ने बीजेपी से हाथ मिलाया तो मांझी के पास कोई विकल्प नहीं बचा था। वह सत्ता गंवाने के बाद नीतीश कुमार के मुखर आलोचक रहे हैं। इन वजहों से माना जा रहा है कि नीतीश और बीजेपी के साथ आने के बाद जो कसर रह गई थी, वह अब इस बदले घटनाक्रम के बाद पूरी हो गई है।
इस तोड़-फोड़ के सियासी कारण यह माने जा रहे हैं कि दरअसल अप्रैल-मई में राज्यसभा चुनाव होने जा रहे हैं और विधान परिषद के चुनाव भी होने हैं। एक साल के भीतर ही लोकसभा और 2020 में विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में सियासी, सामाजिक और राजनीतिक समीकरणों को साधने के लिहाज से सूबे की सियासत के दोनों सबसे बड़े गठबंधन अपने पाले को मजबूत करने की कोशिशें कर रहे हैं। मांझी और चौधरी दोनों ही दलित समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। इसलिए इस वोटबैंक को साधने के लिए मांझी के जाने के बाद एनडीए ने अपने कैंप में अशोक चौधरी को अपने पाले में लाने का फैसला किया।