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महिलाओं के अन्दर टी.बी. जनेन्द्रियों को कर रही प्रभावित
By Deshwani | Publish Date: 6/1/2018 10:33:03 AM
महिलाओं के अन्दर टी.बी. जनेन्द्रियों को कर रही प्रभावित

संजय सिंह

हि.स.। टी.बी. यानी ट्यूबरकुलोसिस एक प्रमुख वैश्विक स्वास्थ्य समस्या है। वर्ष 2014 में सम्पूर्ण विश्व में एक करोड़ टी.बी. के नये मरीज पाये गये जिनमें से कुल 15 लाख मौतें हुई। टीबी के कुल वैश्विक मामलों में से 58 फीसदी मामले सिर्फ दक्षिण पूर्वी एशिया व पश्चिमी प्रशान्त क्षेत्र में पाये गये। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के अनुसार 2014 में भारत में दुनिया के एक चौथाई मामले पाये गये। टी.बी. से मरने वाला हर पांचवा व्यक्ति भारतीय होता है। भारत में हर तीन मिनट में टी.बी. से दो मौतें होती है। इसीलिये टी.बी. को अत्यधिक खतरनाक व जानलेवा बीमारी माना जाता है। इस पर भी जननांग टी.बी. आज महिलाओं के लिए बड़ी समस्या बन चुकी है। टीबी से पीड़ित हर दस महिलाओं में से दो गर्भधारण नहीं कर पाती हैं, जननांगों की टीबी के 40 से 80 प्रतिशत मामले महिलाओं में देखे जाते हैं। अधिकतर वे लोग इसकी चपेट में आते हैं जिनका रोग प्रतिरोधक तंत्र कमजोर होता है और जो संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आते हैं। महिलाओं के जननांग के भीतरी हिस्से यानी जेनिटल ट्रैक्ट में माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस के बैक्टीरिया का पहुंचना निःसंतानता का बड़ा कारण है। अगर कोई महिला गर्भवती होने से पहले टी.बी. से पीड़ित हो तो उसे इलाज पूरा हो जाने तक गर्भधारण नहीं करने की सलाह दी जाती है। 

चिकित्सकों के मुताबिक आम तौर पर टी.बी. फेफड़ों को प्रभावित करता है, लेकिन अगर समय रहता इसका इलाज नहीं किया जाए तो यह शरीर के दूसरे भाग जैसे किडनी, फैलोपियन ट्यूब्स, गर्भाशय मस्तिष्क को भी संक्रमित कर सकता है। जब टी.बी. संक्रमण फैलोपियन ट्यूबों, गर्भाशय तक पहुंच जाता है, तो गर्भधारण में परेशानियां पैदा कर सकता है। पेल्विक ट्यूबरकुलोसिस का पता लगाना कई बार मुश्किल होता है क्योंकि कई मरीजों में लम्बे समय तक इसके कोई लक्षण दिखाई नहीं देते, कई मामलों में इसका पता तब चलता है, जब दम्पति निःसंतानता से जुड़ी समस्या को लेकर चिकित्सक के पास पहुंचते हैं। भारत में कुल टी.बी. मरीजों में से 19 प्रतिशत महिलाओं के अन्दर यह बीमारी पायी जा रही है। महिलाओं के अन्दर टी.बी. उनकी जनेन्द्रियों को प्रभावित कर रही है। 

ग्लोबल लाईब्रेरी ऑफ विमन्स मेडिसीन के मुताबिक अगर महिला को टी.बी हुई तो उसकी ट्यूब खराब होने की आशंका 90 प्रतिशत, गर्भाशय की परत में खराबी 50-60 प्रतिशत, अण्डाशय प्रभावित होने की आशंका 20-30 प्रतिशत तक रहती है। इसमें ट्यूब्स के अन्दर के रेशे खराब हो सकते हैं, जिसके कारण ट्यूब्स पूरी तरह से ब्लॉक या खराब हो सकती है। अगर ट्यूब्स सही तरीके से काम नहीं कर पा रही हैं, तो प्राकृतिक तरीके से गर्भ ठहरने की सम्भावना नहीं के बराबर रह जाती है। ट्यूब अगर पूरी तरह से खराब नहीं हुई तो उसमें भ्रूण ट्यूब में फंसने और बच्चेदानी तक नहीं पहुंच पाने की समस्या से एक्टोपिक प्रेग्नेंसी की गम्भीर समस्या उत्पन्न हो सकती है, जिससे ट्यूब शरीर में फटने की सम्भावना रहती है। इस स्थिति में ऑपरेशन से ट्यूब को निकालना पड़ सकता है।

चिकित्सकों के मुताबिक अगर किसी महिला को बचपन से ही टी.बी. हो जाती है तो यह बीमारी उसके गर्भाशय की परत को नष्ट कर सकती है, जिससे उसकी माहवारी कम हो सकती है या पूरी तरह बन्द हो सकती है। टी.बी. गर्भाशय में संक्रमण का कारण भी बन सकती है। इस संक्रमण की वजह से गर्भाशय के अन्दर मौजूद परत पतली भी हो सकती है, जिसके कारण आगे जाकर भ्रूण को ठीक तरह से विकसित होने में बाधा होती है। 

चिकित्सकों के मुताबिक जिन महिलाओं की ट्यूब्स टी.बी. के कारण खराब हो चुकी है, उनको सबसे पहले विशेषज्ञ की सलाह से टी.बी. का इलाज पूरा कर लेना चाहिए। टी.बी. का इलाज खत्म होने के बाद छह माह तक वे प्राकृतिक रूप से सन्तान प्राप्ति की कोशिश कर सकते हैं। कई महिलाओं में अगर ट्यूब का कुछ भाग सही तथा दूसरा भाग खराब हो तो उनमें एक्टोपिक प्रेग्नेंसी यानी भू्रण का ट्यूब में विकसित होने जैसी समस्या हो सकती है। अक्सर टी.बी. से प्रभावित महिलाओं में ट्यूब का बन्द होना, ट्यूब में पानी भरने की समस्या के चलते चिकित्सक लेप्रोस्कॉपी का ऑपरेशन कर ट्यूब खुलवाने की सलाह देते हैं। वहीं अगर टी.बी. के इंफेक्शन से ट्यूब के अन्दर के रेशे खराब हो चुके हैं तो अक्सर ऐसे मरीजों में लेप्रोस्कॉपी के बाद गर्भाधारण की समस्या काफी कम रहती है क्योंकि अण्डे व शुक्राणु का मिलन ट्यूब में नहीं हो पाता है। ऐसे मरीजों के लिए आईवीएफ यानी टेस्ट ट्यूब बेबी एक अच्छा विकल्प है। 

स्त्रीरोग विशेषज्ञ डॉ. विद्या बताती हैं कि अण्डे व शुक्राणु का मिलन प्राकृतिक गर्भधारण में ट्यूब के अन्दर होता है। टेस्ट ट्यूब बेबी एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें अण्डे व शुक्राणुओं को शरीर से बाहर फर्टिलाइज कराया जाता है। इस प्रक्रिया में महिला के अण्डों को बाहर निकालकर पति के शुक्राणु से लैब में निषेचन कर भ्रूण तैयार किए जाते हैं। इस भ्रूण को तीन से पांच दिन लैब में ही विकसित कर महिला के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया जाता है। चिकित्सकों के मुताबिक प्राकृतिक तौर पर औरत के अण्डाशय में एक महीने के दौरान एक ही अण्डा बनता है, लेकिन आईवीएफ प्रक्रिया में महिलाओं को ऐसे इंजेक्शन दिए जाते हैं, जिनकी सहायता से उनके अण्डाशय में एक से अधिक अण्डे बनने लगते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान महिला का अल्ट्रासाउण्ड कराकर अण्डों की बढ़त को जांचा जाता है। अधिक अण्डे इसलिए जरूरी होते हैं, ताकि उनसे ज्यादा से ज्यादा भ्रूण बनाये जा सके और उनमें से सबसे अच्छे भ्रूण का चयन कर प्रत्यारोपण किया जा सके। भ्रूण वैज्ञानिक इन्क्यूबेटर में विभाजित हो रहे भ्रूण को अपनी निगरानी में रखते हैं व उसका विकास समय-समय पर देखते हैं। दो-तीन दिन बाद यह अण्डा छह से आठ सेल के भ्रूण में परिवर्तित हो जाता है। भ्रूण वैज्ञानिक इन भ्रूण में से अच्छी गुणवत्ता वाले एक से तीन भ्रूण प्रत्यारोपण के लिए चयन करते हैं। कई मरीजों में इन भ्रूण को पांच से छह दिन लैब में पोषित कर ब्लास्टोसिस्ट बना लिया जाता है, जिससे सफलता का प्रतिशत बढ़ जाता है। भूण वैज्ञानिक विकसित भ्रूण या ब्लास्टोसिस्ट में से एक से तीन अच्छे भू्रण का चयन कर उन्हें भ्रूण ट्रांसफर केथेटर में ले लेते हैं। चिकित्सक इस केथेटर को महिला के गर्भाशय में नीचे के रास्ते से डालकर एक पतली नली के जरिए अल्ट्रासाउण्ड इमेजिंग की निगरानी में महिला के गर्भाशय में छोड़ देते हैं। भू्रण का विकास व आगे की प्रक्रिया वैसी ही होती है, जैसी प्राकृतिक गर्भधारण की होती है। 

केजीएमयू में रेस्पाइरेटरी मेडिसिन विभाग के विभागाध्यक्ष डा. सूर्यकान्त के मुताबिक विज्ञान की बढ़ती उपलब्धियों के चलते आज के जमाने में सभी प्रकार की टी.बी. सहित महिलाओं में बन्द ट्यूब्स, कम या शून्य शुक्राणु, अण्डों की खराब गुणवत्ता जैसी अलग-अलग समस्याओं का सम्पूर्ण उपचार सम्भव है। इसलिए अन्धविश्वास, झाड़-फूंक के बजाए योग्य चिकित्सक के निर्देशन में अत्याधुनिक तकनीक अपनाकर टी.बी. का सही इलाज और सन्तान प्राप्ति सम्भव है।. उनके मुताबिक एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान टी.बी. की बीमारी को उचित प्राथमिकता देना जरूरी हो गया है, क्योंकि टी.बी. सिर्फ एक चिकित्सकीय बीमारी ही नहीं है बल्कि यह एक सामाजिक बीमारी भी है। कुशल एवं निपुण डाक्टर को ही टी.बी. के मरीजों का इलाज करने की छूट होनी चाहिए।

 

 

 

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