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विनायक श्रीगणेश चतुर्थी, चौथ चन्दा व्रत 13 व ऋषि पंचमी 14 को शास्त्र-सम्मत
By Deshwani | Publish Date: 12/9/2018 11:25:18 PM
विनायक श्रीगणेश चतुर्थी, चौथ चन्दा व्रत 13 व ऋषि पंचमी 14 को शास्त्र-सम्मत

 

भगवान गणेश ही है विघ्नहर्ता एवं विघ्नकर्ता. 
सात वर्षों तक ऋषि पंचमी व्रत का अनुष्ठान  करने का है विधान.
पीपराकोठी। माला सिन्हा।
वैनायकी सिद्ध विनायक श्रीगणेश चतुर्थी तथा बिहार में प्रचलित चन्द्र पूजा चौथ चन्दा, का प्रसिद्ध पर्व गणेशोत्सव के साथ 13 सितम्बर गुरुवार को तथा ऋषि पंचमी व्रत 14 सितम्बर को मनाया जाना शास्त्र सम्मत है. भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को अग्रपूज्य देवता गणेश जी का मध्याह्न काल में अवतरण हुआ था. इसी उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को इस पर्व को मनाया जाता है. भगवान गणेश विघ्नहर्ता एवं विघ्नकर्ता दोनों हैं. जहाँ भक्तों के लिए वे विघ्न विनाशक हैं, वहीं दुष्टों के लिए विघ्नकर्ता भी हैं. गणेश जी बुद्धि के देवता हैं. ऋद्धि और सिद्धि इनकी धर्म पत्नियाँ हैं. इस प्रकार इनकी उपासना से जहाँ कार्यों में सफलता मिलती है,अवरोध हटते हैं,वहीं ज्ञान और बुद्धि में वृद्धि होती है तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है. गणेश चतुर्थी के दिन भगवान गणेश की प्रतिमा पर सिन्दूर चढाना चाहिए और उन्हें लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए. उक्त बातें महर्षिनगर स्थित आर्षविद्या शिक्षण प्रशिक्षण सेवा संस्थान-वेद विद्यालय के प्राचार्य सुशील कुमार पाण्डेय ने दी. श्री पाण्डेय ने बताया कि इस दिन प्रातःकाल उपवास करना चाहिए. दोपहर में गणेश जी प्रतिमा पर सिन्दूर चढाकर विधिवत उनकी पूजा करनी चाहिए तथा नैवेद्य में लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए. तदुपरांत आरती करनी चाहिए. इसदिन चन्द्रमा को नहीं देखना चाहिए. वही उन्होंने ऋषि पंचमी के संबंध में बताया कि रजस्वला के स्पर्श से प्राप्त दोष को दूर करने वाला ऋषि पंचमी व्रत भाद्रपद शुक्लपक्ष की मध्याह्न व्यापिनी पंचमी तिथि को करने का विधान है, इस दिन मध्याह्न काल में नदी,तालाब आदि निर्मल जलाशय पर जाकर अपामार्ग, चिचिड़ा की एक सौ आठ दातुन से दन्तधावन कर शरीर में मिट्टी का लेपन कर जल में स्नान करना चाहिए व पंचगव्य का प्राशन कर अपामार्ग,चिचिड़ा और कुशा से निर्मित अरुन्धती सहित सप्त ऋषियों की प्रतिमा को सर्वतोभद्र की वेदी पर स्थापित कर श्रद्धा एवं निष्ठा पूर्वक पूजन करना चाहिए. इस व्रत को करने से रजस्वला के स्पर्श से प्राप्त दोष नष्ट हो जाते हैं. शरीर अथवा मन से किया गया समस्त पाप इस व्रत के प्रभाव से दूर हो जाते हैं. यह व्रत सब पापों को नष्ट करने वाला तथा धन,यश,स्वर्ग व पुत्र-पौत्रादि को देने वाला है. इस व्रत का अनुष्ठान सात वर्षों तक करने का विधान है. श्री पाण्डेय ने बताया कि भविष्य पुराण के अनुसार पूर्व समय में वृत्रासुर को मारने से इन्द्र ब्रम्ह हत्या को प्राप्त हुए. उस हत्या से दुखी होकर वे अपनी शुद्धि के लिए ब्रह्मा जी के पास गए. देवताओं के साथ ब्रम्हाजी एक क्षण ध्यान कर प्रसन्न मन से इन्द्र की शुद्धि कर दिए. उस समय ब्रह्मा जी ने ब्रम्ह हत्या के चार विभाग कर चार स्थानों में उसका प्रक्षेपण किया. प्रथम भाग को अग्नि की प्रथम ज्वाला में,द्वितीय को नदी के प्रथम जल में,तृतीय को पर्वत में और चतुर्थ भाग को स्त्रियों के रज में गिरा दिया. ब्रह्मा की आज्ञा है कि रजस्वला स्त्रियों को स्पर्श दोष से बचना चाहिए. इस अवस्था में स्त्रियों के लिए गृहकार्य में संलग्न हो ज्ञानावस्था या अज्ञानावस्था में बर्तनों का स्पर्श करना निषेध है. जो स्त्रियाँ निष्ठा पूर्वक इस व्रत को करतीं हैं वह रजस्वला के स्पर्श दोष से मुक्त होकर रूप,लावण्य व पुत्र-पौत्रादि से परिपूर्ण होती हैं तथा नाना प्रकार के ऐश्वर्य को भोगकर अंत में निष्पाप और सौभाग्यवती होकर अक्षयगति को प्राप्त होती है.
 
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