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अखिलेश की साइकिल, मुलायम की बढ़ी मुश्किल
By Deshwani | Publish Date: 17/1/2017 12:10:44 PM
अखिलेश की साइकिल, मुलायम की बढ़ी मुश्किल

 आईपीएन। यूपी में मुलायम का परिवार तो टूट गया लेकिन समाजवादी पार्टी और उसकी साइकिल बच गयी। चुनाव आयोग के फैसले से यह साबित हो गया है कि समाजवादी पार्टी और साइकिल का असली दावेदार पिता नहीं बेटा टीपू सुल्तान ही है।

हलांकि मुलायम के साथ उनकी तिकड़ी शिवपाल सिंह यादव और अमर सिंह के लिए बुरी है। क्योंकि फैसले बाद सभी का अस्तित्व दांव पर लग गया है। सीएम अखिलेश यादव संवैधानिक जीत के बाद पारिवारिक संबंधों को कितना और किस हद तक निभाते हैं यह समझना होगा। लेकिन मुलायम का अब यह कहना की समाजवादी पार्टी के वे राष्टीय अध्यक्ष और शिवपाल प्रदेश अध्यक्ष हैं बेइमानी होगी। समाजवादी पार्टी अब अखिलेश की हो चली है। कानूनी रुप से उस पर उन्हीं का अधिकार है। इस जुबानी विराम लगना चाहिए। सवाल उठता है कि इस जीत के बाद चाचा और भतीजे बीच आयी खटास क्या दूर होगी। क्या अमर सिंह को बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा। मुलायम सिंह मार्गदर्शक की भूमिका में रहेंगे या फिर उनकी भी पार्टी से छुट्टी होगी। इसके लिए इंतजार करना होगा। फिलहाल अखिलेश पार्टी के राष्टीय अध्यक्ष हैं उन्हें अब टिकट बांटने और फैसला लेने का संवैधानिक अधिकार मिल गया है। पिता और चाचा की अंडंगेबाजी से वह स्वतंत्र हो चुके हैं। लेकिन बदले हालात में मुलायम सिंह यादव का अगला निर्णय क्या होगा यह देखना होगा। वह राजनीति से संन्यास लेंगे या फिर दूसरी पार्टी बनाकर बेटे से मुकाबला करेंगे। जबकि शिवपाल और अमर सिंह नेताजी के साथ ही रहेंगे या फिर नयी जमींन तलाश करेंगे। यक्ष प्रश्न है कि अखिलेश यादव टिकट का फैसला किस आधार पर करेंगे। उनकी तरफ से जारी उम्मीदवारों की सूची में क्या फेरबदल होगा। माफियाओं और दागी चरित्रवालों को टिकट की रेवड़ी बांटी जाएगी या मुख्तार, अतीक और दूसरे बाहुबलियों पर उनकी अड़िगता कायम रहेगी। दूसरी बात क्या पिता और चाचा की तरफ से जारी सूची वाले विधायकों और समर्थकों साथ नरमी दिखायी जाएगी और उन्हें भी पार्टी का उम्मीदवार बनाया जाएगा।
इन परिस्थितियों में वह कैसे संतुलन बनाएंगे। अगर मुलायम सिंह यादव लोकदल की कमान लेकर नयी भूमिका में आए तो उनकी रणनीति क्या होगी। मुलायम सिंह यादव क्या अखिलेश की समाजवादी पार्टी के सामने अपना उम्मीदवार खड़ा करेंगे और चुनावी महासंग्राम का सामना करेंगे। उनकी तरफ से अमल में लायी गई इस तरह की कोई भी रणनीति क्या कामयाब होगी। क्योंकि हवा का रुख सीएम बेटे अखिलेश के पक्ष में हैं। अभी तक की जंग में अखिलेश और मुलायम एक दूसरे के लिए काफी कुछ संजो रखा है। आयोग के फैसले के तुरंत बाद वे पिता मुलायम का आशीर्वाद लेने पहुंचे और बोले साइकिल अब दौड़ेगी। मुलायम भी कार्यकर्तातों के साथ कई बार भावुक बयान दे चुके हैं। उन्होंने यहां तक कहा कि अखिलेश मेरा फोन नहीं उठाता।  उसे बीबी बच्चों की कसम दिया तो मिलने आया लेकिन कुछ मिनट बाद चला गया, मेरी सुनता ही नहीं। आखिर अंदर का सच क्या है यह सब अखिलेश को प्रतिस्थापित करने की मुलायम की रणनीति है या इमोशन डामा। अब वक्त आ गया है जब यादव बंधुओं यानी मुलायम सिंह यादव और शिवपाल सिंह को सत्ता संघर्ष की इस जंग पर विराम लगा देना चाहिए। मुलायम सिंह यादव चुनावी जंग में कूदते हैं तो इससे बाप-बेटे दोनों को नुकसान होगा।
मतदाताओं के सामने विषम स्थिति होगी। वह पिता के साथ जाए या बेटे की साइकिल चलाएं। इस यु़द्ध में पिता की करारी पराजय भी हो सकती हैं, क्योंकि मुस्लिम और ओबीसी मतदाता आम तौर पर समाजवादी पार्टी का समर्थक माना जाता है। वह कभी इस तरह का फैसला नहीं लेगा जिससे उसका मत बेकार जाय और इसका फायदा गैर समाजवादी दलों बसपा या भाजपा की झोली में जाए। ऐसी स्थिति में पार्टी का वोटर अखिलेश के साथ ही रहेगा। बदले हालात में मुलायम सिंह को बेटे का साथ देना चाहिए। जिससे की भविष्य में सबकुछ सुरक्षित रहे और पिता और पुत्र के संबंधों में खटास के बाद भी मिठास बनी रहे। राज्य की कमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के पास भले रही, लेकिन उसका रिमोट मुलायम सिंह यादव अपने पास रखना चाहते थे। पिता मुलायम सिंह यादव सीएम अखिलेश के साथ मुख्यमंत्री जैसा बरताव कभी नहीं किया। यूपी की राजनीति में यह साढ़े चार मुख्मंत्री का जुमला भी चर्चित हुआ। सार्वजनिक मंचों पर उन्हें नीचा दिखाने की हर वक्त कोशिश की गई। पिता और चाचा मुख्यमंत्री को बेटा माना और उसी जैसा व्यवहार किया। खुले मंच से मुलायम सिंह और शिवपाल सीएम और सरकार को कटघरे में खड़ा किया। आखिरकार बेटे की शतरंजी चाल में पिता-चाचा के साथ अमर सिंह कपंनी धराशायी हो गयी। लेकिन आयोग का फैसला विरोधियों के लिए बुरी खबर है। सपा के बिखराव का सपना संजाए बसपा और भाजपा के लिए बड़ा झटका है। फैसले बाद गठबंधन की राजनीति तेज हो गयी है। कांग्रेस, आरएलडी और सपा की तिकड़ी एकजुट हो सकती है। लेकिन सत्ता के संघर्ष और घरेलू झगड़े में तकरीबन 25 साल पुरानी समाजवादी विचारधारा का बिखराव थम जाएगा या यह जारी रहेगा। अगर ऐसा होता है तो राजनीतिक इतिहास की शायद यह सबसे बड़ी त्रासदी साबित होगी जहां सत्ता के केंद्रीय करण पर पूरा परिवार और दल विखंडित हो जाएगा। अखिलेश की चुनौतियां कम नहीं होती दिखती। क्योंकि पिता की जुबान से निकली बात कुछ यही इशारा करती है। उन्होंने कहा वह रामगोपाल के हाथों में खेल रहा है।
मेरी बात नहीं सुनता है। तीन बार बुलाया लेकिन मेरी बात नहीं सुनी। सबसे बड़ी बात उन्होंने कहा कि अखिलेश की लिस्ट में मुसलमानों की संख्या कम है। इससे यह साबित हो रहा है कि साइकिल के सुल्तान और पिता के बीच यह जंग जारी रह सकती हैं। लेकिन समाजवादी पार्टी में मचे परिवारवादी नाटक का उपसंहार यही है कि सीएम बेटे अखिलेश के खिलाफ मुलायम का सारा दांव उल्टा चला है। पार्टी पर अपनी लगाम कसने की सारी कवासद फेल हुई है। मुलायम के पास अब कोई विकल्प नहीं बचा है। वह बेटे के सामने आत्मसमर्पण करें या अखिलेश की समाजवादी पार्टी में मार्गदर्शक की भूमिका में बने रहें। अंतिम विकल्प बेटे के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरना रह गया है। लेकिन यह निर्णय मुलायम और अखिलेश के खिलाफ होगी। वक्त के साथ मुलायम को समझौता करना ही पड़ेगा। 
   
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। उपर्युक्त लेख लेखक के निजी विचार हैं।)
 
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