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स्वतंत्रता आदिम भूख है
By Deshwani | Publish Date: 16/1/2017 2:11:15 PM
स्वतंत्रता आदिम भूख है

 आईपीएन। स्वतंत्रता आदिम भूख है। सभी जीवों की। स्व-तंत्र का अर्थ है अपना अन्तर्ताना। अपनी अन्तर्तान में उन्मुक्त होने की स्थिति। स्वंत्रता परम लब्धि है। स्वतंत्रता का चरम परम ही मुक्ति है। मुक्ति भारतीय चिन्तन का अंतिम पुरूषार्थ है। हमारा जन्म परतंत्रता में होता है। दिक्-काल के भीतर। यहां परिवार चयन की सुविधा नहीं। अपना रूप, रंग, नाक, कान हम नहीं तय करते। सारा कुछ परतंत्र है - इन बिल्ट जान पड़ता है। हम निरूपाय होते हैं। परिवार पालता है, समाज मर्यादा देता है। परतंत्रता बढ़ती जाती है। मन करता है, उड़े आकाश तक। प्रकृति हम मनुष्यों को पंख नहीं देती। पक्षी को पंख मिलते हैं तो अन्य तमाम विवशताएं भी घेरती हैं। हम पृथ्वी का अंश हैं, पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है। हम सब भी सूर्य की परिक्रमा करते हैं। परतंत्र होकर। चन्द्र किरणे प्रभाव ड़ालती हैं। पूर्वजों ने बताया है कि चन्द्रमा विराट जगत का मन है। वह हमारे मन को प्रभावित करता है। केनोपनिषद् के ऋषि की जिज्ञासा है कि इस मन को कौन विषयों की ओर प्रेरित करता है? हम मनसा स्वतंत्र नहीं हैं। वाचा कर्मणा का स्वातंन्न्य भी निश्चित नहीं है। 

बंधन ही बंधन। दूर आकाश में बैठे मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि जैसे हाहाहूती ग्रह भी अपनी चलाते हैं। हम उनके प्रभाव में नाचने को विवश हैं। परवश, लाचार, निरूपाय। समाज व्यवस्था अपनी चलाती है और राजव्यवस्था भी अपनी। प्रकृति की करोड़ो शक्तियां बांधती हैं, हमारी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करती हैं। हम परतंत्रता में छटपटाते हैं। हम स्वतंत्र होना चाहते हैं। राजव्यवस्था और दण्ड पर्यायवाची हैं। कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में “आन्वीक्षकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति चार विद्याएं” बताई हैं। आन्वीक्षकी में योग, सांख्य आदि दर्शन हैं। त्रयी वैदिक विद्या है। वार्ता में कृषि, पशुपालन और आर्थिक विषय हैं। दण्डनीति का सम्बन्ध में समाज में गलत करने वालों को दण्ड देने से है। कौटिल्य ने वार्ता और दण्डनीति को प्रमुख बताया है। लिखा है कि “शुक्राचार्य के अनुयायी दण्डनीत को ही प्रमुख मानते थे।” समाज में दण्डव्यवस्था जरूरी है। साथ में अन्य विद्याएं भी। हरेक समाज का अपना दृष्टिकोण होता है। व्यक्ति की तरह राष्ट्र भी स्वतंत्रता के इच्छुक रहते हैं। विदेशी राजव्यवस्था में समाज की स्वाभाविक गतिशीलता मंे बाधा आती है। दण्डनीति भी समाज व्यवस्था की पूरक नहीं रह जाती।

समाज दण्ड भय से ही नहीं चलते। समाज के संचालन की अपनी चेतना होती है। स्वतंत्र समाज आत्मीनिरीक्षण के रास्ते आत्मसुधार भी करते रहते हैं। मनुष्य स्वयं को परिस्कृत करते हैं, सुसंस्कृत करते हैं और सांस्कृतिक सामूहिकता में रसमय होते हैं। हरेक समाज की अपनी संस्कृति होती है। भूमि और संस्कृति की सामूहिक प्रीति में राष्ट्र बनते हैं। राष्ट्र अपनी राजव्यवस्था भी बनाते हैं। भारत में भी ऐसा ही था। भारत ऐसा ही सांस्कृतिक राष्ट्र है, लेकिन 7वीं सदी में विदेशी आक्रांता आए। स्वभाव, स्वसंस्कृति और स्वतंत्रता बाधित हुई। भारत बहुत लम्बे समय तक विदेशी आक्रांताओं और उनके वंशजों की सत्ता में रहा। फिर अंग्रेजी सत्ता आई। भारतीय अस्मिता स्वतंत्रता और निजता को समाप्त करने का अभियान चला। बर्बर हिंसा और स्वदेशी पंूजी की लूट हुई। भारत स्वतंत्रता के लिए लड़ा। अंग्रेज गये। भारत ने 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतंत्रता दिवस का राष्ट्रीय उत्सव मनाया। बेशक यह राजनैतिक सत्ता परिवर्तन था लेकिन इतिहास में स्वाभाविक ही यह दिन विशेष महत्व का है।

स्वतंत्र राष्ट्र होने का सुख विदेशी राजव्यवस्था से मुक्ति की मंगल मुहूर्त था। तबसे हम भारत के लोग हर बरस इसी मुहूर्त पर अपना स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। हमारे पास अपना संविधान है, अपनी राजव्यवस्था और अपनी सम्मानीय न्यायपालिका। विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ही। लेकिन स्वतंत्रता का उपभोग आसान नहीं है। स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं होती। इसका सदुपयोग करने की क्षमता चाहिए। पराधीनता में हमारे सुख स्वस्ति आदि उपभोगो की शैली स्वामी तय करता है। स्वाधीनता में यह जिम्मेदारी हम पर ही होती है। हम गाली बकने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। हम अपने मन का परिधान धारण करने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन नंगे घूमने को स्वतंत्रता नहीं कहा जा सकता। स्वतंत्रता का लाभ उठाकर समाज को सुंदर बनाया जा सकता है। 

स्वतंत्रता का उपभोग विकल्पहीन नहीं है। स्वतंत्र के लिए क्या? जैसी इच्छा वैसी यात्रा। स्वतंत्रता का एक छोर ऊध्र्वगामिता है और दूसरा छोर है पतनशीलता। स्वतंत्रता का दूसरा विकल्प खतरनाक है। मनुष्य का हिंसक पशु हो जाना ऐसा ही है। सामाजिक से असामाजिक प्राणी हो जाना अथवा राजक से अराजक हो जाना। स्वतंत्रता का ऐसा दुरूपयोग भी संभव है। अपने राष्ट्र में स्वतंत्रता का दुरूपयोग पग पग पर है। जनप्रतिनिधि संस्थाओं में हुल्लड़। सार्वजनिक स्थलों पर गंदगी फैलाने की निर्बाध स्वतंत्रता। श्लील, अश्लील हिंसक, वेदनादायी कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता का दुरूपयोग हमारे सामने है। फेसबुक, वाट्सएप और ट्विटर के शब्द संजाल का वर्णन कठिन। ऊधो कहि न जाय क्या कहिए? राष्ट्रजीवन में अव्यवस्था है। न नियम, न अनुशासन, न संयम और न ही व्यवस्था। स्वतंत्रता के ऐसे दुरूपयोग के चलते हमारे राष्ट्रजीवन की संस्थाएं अपनी शक्ति खो रही हैं। 

अब राजनैतिक स्वतंत्रता के साथ स्वराज है। स्वसंस्कृति के विकास और स्वतंत्रता के बावजूद हम भारत के लोग निराश, हताश और उदास हैं। राष्ट्रजीवन में प्रसाद पुलक नहीं। सब तरफ विषाद और अवसाद का ही वातावरण है। स्वतंत्रता का प्राण है स्वअनुशासन। शासन नहीं आत्मानुशासन ही। अराजक जीवन नहीं। स्वसंस्कृति के स्वछंद के प्रति आत्मीय आस्तिकता ही। स्वतंत्रता प्रतिस्पर्धी नहीं होती। यह आकाश तक उड़ने का अवसर देती है और आकाश में उड़ने के लिए सड़क या रेल मार्ग जैसे सुविचारित पथ नहीं होते। हवाई यात्रा में विशेष सतर्कता की आवश्यकता होती है। सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। स्वतंत्रता के उपभोग में संयम की मर्यादा होती है। पक्षी आकाश में उड़ते हैं। स्वतंत्रता का असीम सुखद उपभोग करते हुए। 

स्वतंत्रता परम सौभाग्य है। परम व्योम तक उड़ने का अवसर लेकिन हम भारतीय जमीन पर भी स्वतंत्रता का आत्मीय उपभोग नहीं कर पाते। मंदिरों में भगदड़ होती है, विवाह बरात में झगड़े होते हैं। सार्वजनिक उत्सवों में नृत्य स्थल पर मारपीट होती है। संसद और विधानमण्डलों में स्वतंत्रता के उपभोग दयनीय हैं। राजनीति में अराजक अपशब्दों की स्वतंत्रता है। तुलसी के मानस की चैपाई याद आती है - परम स्वतंत्र न सिर पर कोऊ। स्वतंत्रता की उपभोग शैली पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। स्वतंत्रता स्वच्छन्दता नहीं है। वीणा के बिखरे तारों को सम्यक करने से ही सुर साधना पूरी होती है। स्वतंत्रता का उपभोग स्वअनुशासन में ही सिद्धि पाता है। स्वतंत्र भारत को विश्व का नेतृत्व और मार्गदर्शन करना है। आइए स्वतंत्रता के श्रद्धालु उपासक बने हम सब। 

(लेखक चर्चित स्तम्भकार हैं। उपर्युक्त लेख लेखक के निजी विचार हैं।)

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