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संपादकीय
देवताओं की साजिश- विजय सिंह : ज़िन्दगी छोटी और यादें बड़ी
By Deshwani | Publish Date: 23/2/2023 11:01:01 PM
देवताओं की साजिश- विजय सिंह : ज़िन्दगी छोटी और यादें बड़ी

मोतिहारी (वरिष्ठ पत्रकार) संजय कौशिक"देशवाणी" ने दिवंगत पत्रकार विजय सिंह की पुण्य तिथि पर कुछ लिखने का दायित्व सौंपा है। समझ में नहीं आता क्या लिखूं और क्या नहीं... एक उम्दा पत्रकार लिखूं या फिर एक बेहतरीन इंसान लिखूं, शब्दों का जादूगर लिखूं या फिर सच्चा मित्र लिखूं। निश्छल सी उनकी मुस्कान लिखूं या फिर जीवन का वह संघर्ष लिखूं जिसने जीवन ही छीन लिया।

           
 
 
आज से ठीक 6 साल पहले 23 और 24 फरवरी  2017 की मनहूस रात ने विजय भाई को हमसे छीन लिया। रोज की तरह उस रात भी "हिंदुस्तान" दैनिक, मुजफ्फरपुर में अपने सम्पादकीय दायित्वों का निर्वहन कर मोतिहारी के लिए निकले थे। मुजफ्फरपुर से मोतिहारी की वह यात्रा अधूरी रह गयी। घर से 80 किलोमीटर दूर अखबार वाली टैक्सी पलट गयी। और अपनी कर्मभूमि को सांसें सौंपकर सदा सर्वदा के लिए विजय भाई कभी ना लौटने के लिए चले गए।
           
 
 
 
यह सूचना ह्रदयविदारक थी। नन्हा सा था निखिल। विलखती हुई मां के आंसूओं का ठीक से अर्थ निकलना भी नहीं जानता था। किसी मशीन की तरह कर्मकांडों का हिस्सा बन गया। अब निखिल समझदार हो गया है। मां की उदासी और नाजुक से कंधों पर आयी गृहस्थी के बोझ ने उसका बचपन छीन कर समय से पहले समझदारी सौंप दिया है। ठीक विजय भाई की तरह ही अब निखिल उनके सृजित रिश्तों को निभाने लगा है।
           
 
 
 
सफेद कागज पर उकेरी गयीं ये लकीरें किसी ख़बर का हिस्सा या बेजान से शब्द मात्र नहीं हैं। इनमें भावनाओं का एक प्रवाह है जो एक मित्र के ह्रदय में चल रही हैं। विजय भाई एक ख़बर से दूसरी ख़बर निकलने में माहिर थे। ख़बर में शब्दों की जादूगरी बहुत कुछ अभिव्यक्त कर जाती थी। ख़बरों में ऐसा पैनापन जैसे मक्ख़न में चाकू उतरता हो। नवभारत टाइम्स, पीटीआई और फिर हिंदुस्तान। बहुत कम प्लेटफार्म बदले फिर भी पत्रकारिता को किसी मिशन की तरह जिया। उसे नई बुलन्दी दी। ज़िन्दगी छोटी भले रही लेकिन यादें बड़ी छोड़ गए विजय भाई।
           
 
 
 
जितने बड़े सवाल उतना ही आनंद उन्हें उन सवालों का उत्तर ढूंढने में आता था। हर परेशानी का कोई न कोई हल उनके पास सदैव उपलब्ध होता था। पत्रकारिता की मुकम्मल पाठशाला जैसे थे। तभी तो "देशवाणी" की शुरुआत करते हुए उन्होंने आनंदित भाव से बताया था... "कलम, व्यवसायिक प्रतिबंधों के दबाव में आने लगी है। "देशवाणी" एक स्वतंत्र प्लेटफार्म है। आपके सहयोग की जरूरत है।" लेकिन नियति ने मौका ही नहीं दिया। उनके नहीं होने की पीड़ा शायद ही कभी ख़त्म हो पाए।
           
 
 
 
कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनसे मुलाक़ात हो जाए, तो लगता है, यह जरूर देवताओं की कोई साजिश होगी...। ह्रदय के करीब ऐसे कुछ गिनती के लोगों में से एक थे विजय भाई। अब तो "तुम जब से ख़्यालों में आने लगे, हम ख़्यालों के घर को सजाने लगे।" ऐसा तब होता है जब कोई दिल की गहराइयों में बसा हो। विजय भाई अब हमारे बीच नहीं हैं। दिल ने कभी स्वीकार ही नहीं किया। जब-जब निखिल (दिवंगत विजय सिंह का इकलौता पुत्र) निगाहों के सामने होता है, ह्रदय में विजय भाई सजीव हो जाते हैं। ह्रदय की गहराईयों में आप हो और सदैव रहोगे भी भाई। हमारी विनम्र श्रद्धांजलि स्वीकार करना...
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