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संपादकीय
बिहार विधान परिषद् की गतिशीलता
By Deshwani | Publish Date: 21/3/2021 8:38:02 PM
बिहार विधान परिषद् की गतिशीलता

वर्तमान संघीय गणराज्य भारत में जनसंख्या के दृष्टिकोण से तीसरा स्थान रखनेवाला 94163 वर्ग कि.मी.क्षेत्र का बिहार राजनीतिक एवं ऐतिहासिक रूप से एक प्रसिद्ध प्रांत रहा है। बौद्ध सन्यासियों का ठहराव स्थल 'विहार' अपभ्रंश होकर कालांतर में 'बिहार' कहा जाने लगा। यह प्रांत पूर्व दिशा में पश्चिम बंगाल, पश्चिम दिशा में उत्तर प्रदेश, दक्षिण दिशा में झारखंड तथा उत्तर दिशा में नेपाल राष्ट्र से घिरा हुआ है।

 

आर्थिक, जलवायविक एवं सांस्कृतिक रूप से संक्रमणशील बिहार को पवित्र नदी गंगा दो अर्धभागों में विभाजित करती है। प्राचीन काल में विभिन्न धर्मावलंबियों का केंद्र एवं विशाल साम्राज्यों का गढ़ रहा यह प्रदेश वर्तमान में विकास की नई लकीरें खींच रहा है। प्रांतीय विधानमंडल की द्विसदनीय व्यवस्था के तहत यहां उच्च सदन के रूप में विधान परिषद् तथा निम्न सदन के रूप में विधानसभा कार्यशील व गतिशील है।

 

बिहार विधान परिषद् अपने गौरवशाली संसदीय इतिहास को समेटे हुए है। मॉर्ले-मिंटो द्वारा प्रदत्त सुझावों पर भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909 के आलोक में 25 अगस्‍त,1911 को भारत सरकार ने भारत सचिव को पत्र प्रेषित कर बिहार को बंगाल से पृथक् करने की सिफारिश की जिसका सकारात्‍मक उत्तर 01 नवंबर,1911 को आया। इंग्‍लैंड के सम्राट जॉर्ज पंचम द्वारा दिल्‍ली दरबार में 12 दिसम्‍बर,1911 को बिहार-उड़ीसा प्रांत के लिए लेफ्टिनेंट गवर्नर नियुक्‍त करने की घोषणा हुई और 22 मार्च 1912 को नए प्रांत का गठन हुआ। 1अप्रैल 1912 को चार्ल्‍स स्‍टुअर्ट बेली बिहार एवं उड़ीसा राज्‍य के लेफ्टिनेंट गवर्नर बने। इन्हीं के नाम पर आज पटना का बेली रोड है।
 
 
लेफ्टिनेंट गवर्नर को परामर्श देने के लिए भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861 एवं 1909 में संशोधन कर भारत सरकार अधिनियम,1912 द्वारा 43 सदस्यीय बिहार विधान परिषद् का गठन किया गया जिसमें 3 पदेन सदस्‍य, 21 निर्वाचित सदस्‍य एवं 19 मनोनीत सदस्‍य का प्रावधान किया गया। विधान परिषद् की प्रथम बैठक 20 जनवरी,1913 को पटना कॉलेज (बांकीपुर) के सभागार में हुई ।
 

बिहार विधान परिषद् में समय-समय पर सदस्‍य- संख्‍या में कमी और वृद्धि की गई है।भारत सरकार अधिनियम,1919 के अंतर्गत 29 दिसम्‍बर,1920 को बिहार और उड़ीसा को गवर्नर का प्रांत घोषित किया गया। विधान परिषद् की सदस्‍य संख्‍या 43 से बढ़ाकर 103 कर दी गई जिसमें 76 निर्वाचित, 27 मनोनीत तथा 2 विषय विशेषज्ञ सदस्‍य होते थे। कुल निर्वाचित 76 में सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या 66 तथा विशिष्ट निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या 10 थी। गणपूर्ति 25 थी। उस समय केवल पुरुषों को ही मताधिकार प्राप्त था। भारत सरकार अधिनियम,1935 के अधीन बिहार व उड़ीसा प्रांत से उड़ीसा को अलग कर एक नया प्रांत गठित किया गया। विधान मंडल को एकसदनीय से द्विसदनीय बना दिया गया। बिहार विधान परिषद् के सदस्‍यों की संख्‍या 29 निर्धारित की गई।
 
 
26 जनवरी,1950 को लागू भारतीय संविधान के अनु.171 में वर्णित उपबन्‍धों के अनुसार विधान परिषद् के कुल सदस्‍यों की संख्‍या 72 निर्धारित की गई। पुन: विधान परिषद् अधिनियम, 1957 द्वारा 1958 ई. में परिषद् के सदस्‍यों की संख्‍या 72 से बढ़ाकर 96 कर दी गई। बिहार पुनर्गठन अधिनियम, 2000 द्वारा बिहार के 18 जिलों तथा 4 प्रमंडलों को मिलाकर 15 नवम्‍बर, 2000 ई. को बिहार से अलग कर झारखंड राज्‍य की स्‍थापना की गई और बिहार विधान परिषद् के सदस्‍यों की संख्‍या 96 से घटाकर 75 निर्धारित की गई।
 
 
अभी बिहार विधान परिषद् में 27 सदस्‍य बिहार विधान सभा निर्वाचन क्षेत्र से, 6 शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र से, 6 स्‍नातक निर्वाचन क्षेत्र से, 24 स्‍थानीय प्राधिकार निर्वाचन क्षेत्र से तथा 12 मनोनीत सदस्‍य होते हैं। स्थानीय प्राधिकार निर्वाचन क्षेत्रों में पटना, भोजपुर-बक्सर, गया-जहानाबाद-अरवल, नालंदा, रोहतास-कैमूर, नवादा, औरंगाबाद, सारण, सिवान, दरभंगा, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, मुजफ्फरपुर, समस्तीपुर, वैशाली, सीतामढ़ी-शिवहर, पूर्णिया-अररिया-किशनगंज, भागलपुर- बांका, कटिहार, मुंगेर-जमुई-लखीसराय-शेखपुरा, सहरसा-सुपौल-मधेपुरा, मधुबनी, गोपालगंज एवं बेगूसराय-खगड़िया हैं। स्नातक एवं शिक्षक निर्वाचन क्षेत्रों में पटना, गया, तिरहुत, सारण, दरभंगा एवं कोसी क्षेत्र हैं। 

विधान परिषद् की उपयोगिता एवं भूमिका पर विमर्श करने के पूर्व संवैधानिक प्रावधानों पर दृष्टिपथ रखना आवश्यक प्रतीत होता है। वर्तमान भारत के छ: 6 प्रांतों में विधान परिषद् कार्यशील हैं। विधान परिषदें बिहार-75, आंध्र प्रदेश-58, तेलंगना-40, उत्तर प्रदेश-100, कर्नाटक-75 एवं महाराष्ट्र-78 सद्स्यों के साथ द्विसदनात्मक विधानमंडल में अपनी भूमिकाएं निर्वहन कर रही है।
 
 
संविधान के अनु.169 के तहत संसद विधि द्वारा जहां विधान परिषद् है उसका उत्सादन तथा जिस राज्य में नहीं है वहां उसका सृजन कर सकती है, यदि संबंधित राज्य की विधानसभा ने इस आशय का संकल्प विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित व मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या के कम से कम दो तिहाई बहुमत द्वारा पारित कर दिया हो।
 
 
अनु.171 के तहत जहां विधान परिषद् है उसकी कुल सदस्य संख्या उस राज्य की विधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या की एक तिहाई से अधिक नहीं होगी तथा किसी भी दशा में 40 से कम नहीं होगी। योग्यताओं के रूप में भारतीय नागरिक, 30 वर्ष की न्यूनतम आयु तथा संसदीय कानून द्वारा निर्धारित शर्तों का अनुपालन होना आवश्यक है। 28 अगस्त 2003 को संसद द्वारा जनप्रतिनिधित्व (संशोधन) अधिनियम,2003 पारित कर प्रदेश की विधान परिषदों के लिए विधानसभा से चुने जाने वाले प्रतिनिधियों के लिए खुली मतदान व्यवस्था का प्रावधान किया गया है।
 
 
मतदानोपरांत विधायकों को अपने अधिकृत दलीय एजेंट को दिखाना होगा। पार्षद का चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार को संबंधित प्रांत का मतदाता होने की अनिवार्यता समाप्त हो गई है। केंद्र में राज्यसभा की भांति विधान परिषद् भी स्थायी है जिसे कभी भंग नहीं किया जा सकता है। इसके सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष निर्धारित है जिनमें एक तिहाई सदस्यों का कार्यकाल प्रत्येक 2 वर्ष उपरांत समाप्त हो जाता है। विधान परिषद् की बैठकों के लिए गणपूर्ति की संख्या संपूर्ण सदस्यों का 10 वां भाग या न्यूनतम 10 होती है इनमें जो भी अधिक हो वही मान्य होगी।
 
 
इस गणपूर्ति के अभाव में सभापति परिषद् की कार्यवाही को स्थगित कर सकता है। विधान परिषद् का अपना एक सभापति तथा एक उपसभापति होता है जिसका निर्वाचन परिषद् के सदस्य अपने में से बहुमत के आधार पर करते हैं। बिहार विधान परिषद् के प्रथम सभापति राजीव रंजन प्रसाद थे तथा वर्तमान सभापति अवधान नारायण सिंह हैं। सभापति सदन की बैठकों का सभापतित्व करता है तथा उसकी कार्यवाही को सुचारू रूप से चलाता है।
 
 
परिषद् बहुमत द्वारा पारित प्रस्ताव के माध्यम से उन्हें पदच्युत भी कर सकती है। किसी विधेयक पर बराबर मत आने की स्थिति में सभापति को निर्णायक मत देने का अधिकार प्राप्त है। सभापति की अनुपस्थिति में उपसभापति उनके कार्यों का संपादन करता है। विधान परिषद् का प्रतिवर्ष दो अधिवेशन होना अनिवार्य है तथा दोनों अधिवेशन के मध्य अधिकतम छ:माह का अंतर होना चाहिए। राज्यपाल को अधिवेशन बुलाने तथा स्थगन का अधिकार प्राप्त है।

विधान परिषद् के कार्यों एवं शक्तियों को तीन भागों में बांटकर समझा जा सकता है। प्रथमत: कार्यपालिकीय, अर्थात मंत्रिपरिषद् को नियंत्रित करने की वास्तविक शक्ति विधानसभा को ही प्राप्त है यद्यपि विधान परिषद् के सदस्य मंत्रिपरिषद् के सदस्य हो सकते हैं वह प्रश्न एवं पूरक प्रश्न पूछ कर कुछ हद तक उसे नियंत्रित कर सकते हैं किंतु मंत्रिपरिषद् का उत्तरदायित्व विधान परिषद् के प्रति कदापि नहीं होता है यह मंत्रिपरिषद् के विरुद्ध विधानसभा की भांति अविश्वास प्रस्ताव भी नहीं ला सकती है। द्वितीयत: विधायी, साधारण विधेयक किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है जब कोई विधेयक विधानसभा द्वारा पारित की जाती है तो उसे विधान परिषद् में प्रेषित की जाती है,परिषद् उसे अस्वीकार कर सकती है, संशोधन सहित पारित करके प्रेषित कर सकती है या उसे अधिकतम तीन महीनों तक रोककर रख सकती है।
 
 
इन सभी अवस्थाओं में यदि विधानसभा दुबारा उस विधेयक को पारित कर विधान परिषद् को प्रेषित करती है तो परिषद् के समक्ष मात्र दो विकल्प होते हैं पहला स्वीकार कर ले तथा दूसरा एक माह तक बिना पारित किए रोककर रख ले, तत्पश्चात यह विधेयक दोनों सदनों द्वारा उसी रूप में पारित समझा जाएगा जिस रूप में विधानसभा ने दुबारा पारित की थी। स्पष्टत: विधानसभा द्वारा ली गई निर्णय ही सर्वोपरि होती है विधान परिषद् अधिकतम चार माह तक उसे रोके रख सकती है।
 
 
इस टकराव की स्थिति में दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन का कोई प्रावधान नहीं है। तृतीयत: वित्तीय क्षेत्र में विधान परिषद् की स्थिति राज्यसभा जैसी ही है है। धन विधेयक केवल विधानसभा में प्रस्तुत किए जा सकते हैं विधानसभा द्वारा पारित होने के उपरांत धन विधेयक विधान परिषद् के पटल पर प्रेषित की जाती है परिषद् को अपने सुझावों के साथ चौदह दिनों के अंदर विधेयक को विधानसभा के पास वापस करनी पड़ती है यदि इस निर्धारित अवधि का अनुपालन परिषद् नहीं करती है तो विधेयक स्वत: कानून बन जाता है।
 
 
विधानसभा विधान परिषद् के सुझावों को स्वीकृत या अस्वीकृत कर सकती है, इस प्रकार वित्तीय मामलों में भी परिषद को नगण्य अधिकार प्राप्त है। विधान परिषद के उपरोक्त कार्यों व अधिकारों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाती है कि यह पूर्णतया शक्तिहीन व कमजोर सदन है। विधानसभा के प्रस्ताव पर इसकी जन्म और मृत्यु इसे और दयनीय कर देती है। इससे यह प्रश्न पैदा होता है कि प्रांतीय विधान मंडलों में द्वितीय सदन रखने की क्या आवश्यकता है।

आज 21वीं शताब्दी में राजनीतिक चिंतकों, विद्वानों एवं बुद्धिजीवियों द्वारा इसकी भूमिका पर प्रश्न चिन्ह खड़ी जा रही है। सभ्य नागरिक समाज द्वारा इसकी उपयोगिता पर संशय व्यक्त की जा रही है। यदि विधान परिषद् की स्वीकृति और अस्वीकृति का विधि निर्माण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ती है तो ऐसे सदन पर धन और समय की बर्बादी की कोई आवश्यकता नहीं है। यह साधारण विधेयक को अधिकतम चार महीने तथा वित्तीय विधेयक को अधिकतम चौदह दिनों तक रोक कर रखने के अतिरिक्त कुछ और नहीं कर सकती है। विधान परिषद् की अनुपस्थिति में भी विधि निर्माण पर कोई असर नहीं पड़ती है अतः इसकी उपस्थिति वास्तव में समय और धन की बर्बादी है।
 
 
विधान परिषद् की संरचना में एक साथ प्रत्यक्ष निर्वाचन, अप्रत्यक्ष निर्वाचन तथा मनोनयन इसे प्रभावशाली ढंग से कार्य करने में बाधा पहुंचाती है। ऐतिहासिक रूप से द्रष्टवय है कि इस द्वितीय सदन में पराजित राजनेताओं को शरण दिया जा रहा है। आज के दौर में यह सदन सत्ताधारी दल के वफादार लोगों का विश्रामालय बन चुकी है। 75 सदस्यीय बिहार विधान परिषद् में मात्र तीन महिला सदस्यों की उपस्थिति से लोकतांत्रिक व लैंगिक संवेदनशीलता को समझी जा सकती है।
 
 
महिला सदस्य मात्र 4 % हैं। इनमें विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से दो सदस्य रावड़ी देवी व कुमुद वर्मा तथा एक मनोनीत सदस्य निवेदिता सिंह हैं। उक्त अवधारणाएं आंशिक रूप से सत्य हो सकती है परंतु सकारात्मक यह भी है कि इस सदन ने बिहार प्रांत को ग्यारह मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा, बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल, हरिहर प्रसाद सिन्हा, अब्दुल गफूर, जगन्नाथ मिश्रा, रामसुंदर दास, भागवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिंह, लालू प्रसाद, रावड़ी देवी व नीतीश कुमार प्रदान किए हैं। उपमुख्यमंत्री श्री सुशील कुमार मोदी भी इसी सदन का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। इसके सैंतालीस सदस्य बिहार के विभिन्न विश्वविद्यालयों की अधिषद् में सदस्य बनकर उच्च शैक्षणिक गतिविधियों में सहभागी भूमिका निभा रहे हैं।

बिहार विधान परिषद् अपने जन्म काल से ही जनसमस्‍याओं के समाधान के प्रति सचेष्‍ट रही है। बिहार विधान परिषद् में 1913 ई. में बाल शिक्षा से संबंधित महत्‍वपूर्ण वाद-विवाद हुआ था। राष्ट्रपिता महात्‍मा गांधी द्वारा चंपारण में किए गए प्रथम अहिंसक सत्‍याग्रह उपरांत तिनकठिया पद्धति से रैयतों को निजात दिलाने हेतु चंपारण भूमि-संबंधी अधिनियम,1918 बिहार विधान परिषद् में पारित हुआ।
 
 
1921 ई. में तिब्‍बी और आयुर्वेदिक दवाखाना खोलने संबंधी प्रस्‍ताव यहां पारित हुआ। 22 नवम्‍बर,1921 ई. को बिहार विधान परिषद् में  महिला मताधिकार संबंधी विधेयक पारित हुआ जो बिहार के गौरवशाली लोकतांत्रिक इतिहास में एक मील का पत्थर है। 21 मार्च,1938 को विधान परिषद् अत्याधिक जनोन्‍मुखी हो गई। श्री कृष्‍ण कुमार लाल द्वारा बिहार विधान परिषद् में 25 जुलाई,1952 को प्रस्‍तुत गैर सरकारी संकल्‍प, जिसमें उन्‍होंने 1945-46 में मि0 फेनटन की अध्‍यक्षता में बनी विशेषज्ञों की समिति के प्रतिवेदन का उल्‍लेख किया था, के आलोक में मोकामा में प्रथम रेल-सह- सड़क सेतु (राजेन्‍द्र सेतु) का निर्माण संभव हो सका।
 
 
कालांतर में बिहार विधान परिषद् के पटल पर पटना में गंगा नदी पर सेतु बनाए जाने का प्रस्‍ताव भी लाया गया। मई,1982 ई. में तत्‍कालीन प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी ने इस पुल का उद्घाटन की और इस पुल का नाम महात्‍मा गांधी सेतु रखा गया। 22 मार्च, 2012 को अपनी स्‍थापना के सौ साल पूरे करने पर बिहार विधान परिषद् द्वारा शताब्‍दी समारोह आयोजित किया गया। 
 
 
7 से 13 दिसंबर, 1978 के बीच धनबाद जिला के विभिन्न भागों में जहरीली शराब पीने के कारण बहुत से लोगों की मृत्यु हो गई थी तथा बड़ी संख्या में लोग अंधे, अपंग, विक्षिप्त एवं विकलांग हो गए। इस समिति ने 3 अप्रैल, 1979 को सदन के पटल पर अपना प्रतिवेदन रखा, परन्तु सदस्यगण इससे संतुष्ट नहीं हुए।
 
 
सभापति ने सदस्यों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए जहरीली शराब जांच समिति का गठन किया। इस समिति ने ह्रदय विदारक असामयिक मौत की घटनाओं को पूर्णरूपेण रोकने के लिए कई महत्वपूर्ण अनुशंसाएं की। बीड़ी मालिकों द्वारा बीड़ी मजदूरों को सरकार द्वारा निर्धारित दर पर महंगाई भत्ता तथा महिला मजदूरों को सरकार द्वारा निर्धारित दर पर महंगाई भत्ता तथा महिला मजदूरों को पुरुष मजदूरों के समतुल्य मजदूरी नहीं देने से संबंधित विषय पर सभापति ने 10 अगस्त, 1977 को एक समिति का गठन किया, जिसने गहराई से विभिन्न बिन्दुओं की जांच कर अपने प्रतिवेदन में विभिन्न अनुशंसाएं की।
 
 
 
जुलाई, 1977 को गंगा कटाव एवं सिंचाई से संबंधित परिषद् की एक विशेष समिति गठित की गई। समिति ने अपने प्रतिवेदन में गंगा कटाव की समस्या को पुरजोर ढंग से उठाया तथा मांग की कि इस तरह की समस्याओं के निदान हेतु एक अलग विशेष कोषांग की स्थापना की जाए। बिहार विधान परिषद् ने विधायन क्षेत्र में कई विधेयकों में महत्वपूर्ण संशोधन कर राज्य और राज्य की जनता के हितार्थ सक्रिय पहल की है। उदाहरणार्थ - बिहार जमीन्दारी उन्मूलन विधेयक, 1947 बिहार विधान सभा से पारित होकर जब बिहार विधान परिषद् में आया तो इस विधेयक में लगभग 43 संशोधन किये गए और इस संशोधित विधेयक को बिहार विधान सभा द्वारा स्वीकार किया गया।
 
 
10अप्रैल 1998 की बैठक में पटना में मजहरुल हक अरबी व फारसी विश्वविद्यालय की स्थापना और कार्यप्रणाली से संबंधित विषय पर सभापति प्रो. जाबिर हुसैन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वाधीनता सेनानियों के सम्मान में दिए जाने वाले पेंशन की राशि में वृद्धि के संबंध में 8 जून, 1998 को सभापति ने महत्वपूर्ण सुझाव देते हुए इस संबंध में शीघ्र कार्रवाई का आदेश दिया।
 
 
गया व चतरा के अल्पसंख्यकों के नरसंहार के संबंध में 22 जुलाई, 1998 को सभापति प्रो. जाबिर हुसैन की विशेष पहल पर स्थापित विशेष जांच समिति का पुनर्गठन कर प्रतिवेदन और उग्रवाद से प्रभावित व्यक्तियों की सूची प्रकाशित हुई। सभापति ने साम्प्रदायिक दंगा में मारे गए अब्दुल वहीद को सहायता राशि और नौकरी देने संबंधी आदेश राज्य सरकार को दिया। इन सबके इतर भी विधान परिषद् की कुछ महत्वपूर्ण उपलब्धियां रही हैं। जैसे - सन्दर्भ पुस्तकालय की स्थापना, परिषद् की पत्रिका परिषद् दृष्टि का प्रकाशन आदि।

अपने एक सौ नौ वर्ष की जीवन-अवधि में बिहार विधान परिषद् जन- समस्‍याओं का समाधान कर सदा जीवंत बनी रही है। यह सदन विधानसभा द्वारा जल्दबाजी में पारित किए गए विधेयक पर रोक लगाकर वहां भावावेश तथा क्षणिक आवेश का निराकरण भी करती रही है। विधानसभा की अधिनायकवादी प्रवृत्ति पर रोक लगाकर नियंत्रण करती रही है। यह सदन विशेष हितों का भी प्रतिनिधित्व करती है क्योंकि इसमें बुजुर्ग, अनुभवी, साहित्यकार, कलाप्रेमी, समाजसेवी, वैज्ञानिक, शिक्षक, स्नातक व सहकारिता आंदोलन से संबद्ध व्यक्तियों की सेवाएं मिलती है।
 
 
यह सदन विधानसभा के कार्यभार को हल्का भी करती रही है। किसी विषय पर शांति पूर्वक तथा पर्याप्त समय देकर विचार करने का अवसर प्रदान करती है। मुख्यतः किसी विधेयक को रोककर उस पर जनमत बनाने का अवसर भी देती है। विधान परिषद् की मेज पर ध्यानाकर्षण, अल्प सूचना प्रश्न एवं शून्यकाल के गंभीर प्रश्नों द्वारा जनमत को आकर्षित किया जा सकता है व जनसमस्याओं का अपेक्षित समाधान खोजा जा सकता है।अत: विधान परिषद् के सृजन या समापन के समर्थकों व विरोधियों दोनों को गहन विमर्श करने की आवश्यकता है कि संविधान निर्माताओं की इस संबंध में क्या आकांक्षाएं रही होगी।
 
 
क्षणिक आवेश या भावावेश में आकर विधान परिषद् की समाप्ति संसदीय आचरण एवं लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रतिकूल है। मनोनयन कोटे से मनोनीत होने वाले सदस्यों के संबंध में पुनः पारदर्शी विमर्श की आवश्यकता है कि क्या आज मनोनीत होने वाले सदस्य वस्तुतः संविधान निर्माताओं की भावनाओं को संतृप्त कर रहे हैं या नहीं। खुद विधान पार्षदों को भी गहन विमर्श करना होगा कि लोगों के द्वारा आज हमारी उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह क्यों खड़ा किया जा रहा है? हम अपनी विधायी भूमिकाओं के निर्वहन में कब, कैसे, कहां, क्यों और कितना पीछे छूट गए हैं? हम अपनी बेहतरी व आकर्षण के अस्तित्व को कायम रखने हेतु क्या-क्या कर सकते हैं? यहां डॉ.भीमराव अंबेडकर का यह कथन सही प्रतीत होता है कि कोई भी संविधान खराब नहीं होता है बल्कि उस संविधान को चलानेवालों की मंशा खराब होती है। यदि कोई वाहन दुर्घटनाग्रस्त होती है तो वाहन की अपेक्षा वाहन चालक ही ज्यादा जिम्मेदार होते हैं।

स्तंभकार--
डॉ.कुमार राकेश रंजन
सहायक प्राध्यापक
राजनीति विज्ञान विभाग
लक्ष्मी नारायण दूबे महाविद्यालय, मोतिहारी
(पूर्वी चंपारण) बिहार
 
 
 
 
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