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संपादकीय
आलिया खान के गीता गायन पर फतवा अनुचित
By Deshwani | Publish Date: 5/1/2018 4:41:10 PM
आलिया खान के गीता गायन पर फतवा अनुचित

सियाराम पांडेय ‘शांत’ 

धर्म बहुत नायाब चीज है। धारण करने की चीज है। अमल करने की चीज है। वह नफरत का बाजार-व्यापार नहीं है। धारयतीति धर्मः अर्थात जो धारण किया जा सकता है, वह धर्म है। धर्म की समझ विकसित होती है ग्रंथों से, महापुरुषों के विचारों से। इस देश के बड़े बुजुर्गों ने पूजा-उपासना के बीच अध्यवसाय की निरंतरता की बात कही। अच्छी चीजें पढ़ेंगे तभी तो अच्छी राह पर चलेंगे।देश में दरिद्रता और फसाद-विवाद की वजह यह है कि आदमी की जिंदगी में अच्छी किताबों के लिए जगह घट गई है। उसने सद्ग्रंथों को पढ़ना कम कर दिया है। बंद कर दिया है। 

सोना कहीं भी पड़ा हो, वह सोना ही होता है। ज्ञान कहीं से भी मिले, ग्रहण करना चाहिए। इकबाल ने लिखा है कि मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना लेकिन जब तक हम धर्मग्रंथों के वाचन में विभाजक रेखा खींचते रहेंगे, जब तक हम ईश्वर को अपने-पराये में बांटते रहेंगे तब तक ‘हम सबका मालिक एक’ की नेक भावना तक पहुंच ही नहीं पाएंगे। अच्छी पुस्तकें वे चाहे किसी भी धर्म की हों, पथ प्रदर्शक की भूमिका अदा करती हैं। जीवन जीने का सलीका सिखाती हैं। सभ्य और सुसंस्कृत बनाती हैं। धर्मग्रंथों में वर्णित विचार अमल की मांग करते हैं। अगर उन पर गौर किया जाए तो इस देश में किसी का किसी से वैर ही न रहे क्योंकि धर्मग्रंथ सभी को ईश्वर का अंश मानते हैं। जब सभी ईश्वर की संतान हैं तो विभेद किस बात का ? सब अपने हैं और अपनों में झगड़ा, यह समझ से परे की बात है। मानसकार ने भी लिखा है कि ‘ईश्वर अंस जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।’ ईश्वर की व्यवस्था में दुराव और छिपाव है ही नहीं। वह बनावट पसंद नहीं करता है। उसका उद्घोष है कि ‘निर्मल मन सो जन मोहिं पावा। मोंहि कपट छल छिद्र न भावा।’ नीति ग्रंथों का तो यहां तक मानना है कि ‘सर्वेषां धर्माणां एकम् लक्ष्यम् अस्ति।’ सभी धर्मो का एक ही लक्ष्य है परम पिता परमेश्वर को पाना, उसकी भक्ति में लीन हो जाना। उस परमपिता परमेश्वर को कोई ईश्वर कहता है, कोई खुदा या अल्लाह कहता है और कोई गाॅड, कहने के तरीके अलग हो सकते हैं, पुकार के नाम अलग हो सकते हैं लेकिन ईश्वर तो एक ही है। 

फिर गीता धरती का ऐसा ग्रंथ है जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने अपने मुख से कहा है। बाकी के ग्रंथ किसी न किसी महापुरुष द्वारा लिखे गए हैं लेकिन गीता एक ऐसा ग्रंथ है जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने कहा और अर्जुन ने सुना है। गीता के सभी अध्याय योग हैं। योग जोड़ता है। योग तोड़ता नहीं है। गीता समाज को जोड़ने वाला ग्रंथ है। वह जीवन दर्शन है। सभी ग्रंथों का निचोड़ है। सभी धर्मों का सार है। हमारा मानना है कि हर व्यक्ति को हर धर्म की अच्छी किताबें पढ़नी चाहिए। उसमें लिखी अच्छी बातों को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाना चाहिए। कबीरदास ने तो लिखा था कि सज्जनों का स्वभाव सूप जैसा होना चाहिए। सार्थक जो कुछ भी है, उसे अपने पास रख लिया और जो निरर्थक है, बेकार है, उसे उड़ा दिया। ‘साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहै थोथा देई उड़ाय।’ उलेमाओं को सोचना होगा कि वे सार्थक का वरण कर रहे हैं या निरर्थक का। संत वही अच्छा होता है जो सभी धर्मों का जानकार हो और उसे सम्मान देने वाला हो। सम्मान के बीज बोकर ही सम्मान की फसल काटी जा सकती है। योगी आदित्यनाथ जब मदरसों में होली, दिवाली और दशहरा पर भी छुट्टियों की बात करते हैं, वहां विज्ञान, गणित और इतिहास पढ़ाने की बात करते हैं तो इसके पीछे उनकी सोच तालीम को दकियानूसी चिंतन से परे ले जाने और सबको व्यावहारिक ज्ञान देने की है। जीवन में अच्छे और बुरे विचारों का, सद्गुणों और दुर्गुणों का आना स्वाभाविक है। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम किससे प्रभावित हो रहे हैं। जीवन में पुरुषार्थ और आलस्य एक साथ आते हैं। तय हमें करना है कि हम किसके साथ खड़े हैं। अच्छाई और बुराई दोनों ही हमारा इस्तकबाल कर रही हैं। हमें किसे अपना सेनानायक बनाना है, यह हमें तय करना है। 

भारत में नए साल पर पहला मजहबी फतवा आलिया खान के खिलाफ जारी किया गया। उसका अपराध यह था कि उसने बाल गंगाधर तिलक की स्मृति में आयोजित एक समारोह में कृष्ण का रूप धारण कर गीता का पाठ किया। वैसे तमाम मंचों पर स्कूली कार्यक्रमों में मुस्लिम बच्चे राम-कृष्ण बनते रहते हैं लेकिन इस कार्यक्रम में भाजपा के दो मुख्यमंत्रियों और राज्यपाल राम नाईक की उपस्थिति भी देवबंद के उलेमाओं के भड़कने की बड़ी वजह रही है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अगर मजहब के नाम पर बांटने वालों को आलिया खान से सीखने की नसीहत न देते तो भी माहौल इतना तल्ख न होता। गीता के वाचन से अधिक चुभी है योगी आदित्यनाथ की नसीहत लेकिन योगी आदित्यनाथ ने भी कुछ गलत नहीं कहा है। व्यक्ति मजहब से नहीं, मजहब के सम्मान से, अपने काम से आगे बढ़ता है। हाल ही में अनवर जलालपुरी का निधन हुआ है, उन्होंने तो गीता का काव्यानुवाद किया था। देवबंदी उलेमाओं ने उनका विरोध क्यों नहीं किया? वर्ष 2014 में जब योग को अपनाने की बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे थे, तब भी कुछ मुस्लिम धर्मगुरुओं ने इसका विरोध किया था। जिस योग से लोग निरोग रह सकते हैं, उसे अपनाने में भलाई है या अस्पताल में बेड पर पड़े रहने में भलाई है। जिस गीता का विरोध देवबंदी उलेमा कर रहे हैं, उस गीता का तर्जुमा औरंगजेब जैसे कट्टर मुसलमान ने भी किया था। रहीम और रसखान ने तो श्रीकृष्ण प्रेम में क्या-क्या नहीं लिखा तो क्या वे शिर्क थे? रसखान ने तो यहां तक कहा कि ‘मानुष हौं तो वही रसखान बसौं ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।’ व्यक्ति हिंदू और मुसलमान हो सकता है लेकिन इंसान होना बड़ी बात है। जब तक इस देश के लोग एक दूसरे के धर्म को महत्व नहीं देंगे तब तक शांति और सौहार्द का वातावरण नहीं बन सकता।

मुस्लिम धर्मगुरुओं को इस बावत विचार करना होगा। इस धरती पर इस्लाम का इतिहास जितना पुराना है, धरती उससे भी अधिक पुरानी है। तब भी धरती के लोग धर्म को मानते थे। ईश्वर को मानते थे। धर्म ही है जिसकी बदौलत दुनिया का अस्तित्व है। धर्म की बदौलत ही लोग एक हैं। पारिवारिक, सामाजिक मर्यादाएं बची हैं। मानव मूल्य बचे हैं। देवबंद के उलमा की आपत्ति जायज नहीं है। धर्म ठेकेदारी का विषय नहीं है। किसी को भी धर्म की ठेकेदारी नहीं दी जा सकती। किसी भी धर्मग्रंथ में किसी भी व्यक्ति को धर्म का ठेकेदार बनाने की कोई व्यवस्था भी नहीं है। इस धरती पर अवतारों और महापुरुषों ने समाज को आगे ले जाने, उन्हें शांति और सौहार्द से रहने, सद्गुणों का विकास करने के लिए कुछ अच्छी बातें कहीं हैं। कलियुग में भी वे बातें कही जा रही हैं। अपनाने की बात है। अमल करने की बात है। 

अनुयायी होना किसी मजहब विशेष का ठेकेदार होना नहीं है। धर्मग्रंथों में दूसरे धर्म की मुखालफत नहीं है। उलमा को इस बात की पीड़ा है कि कोई मुस्लिम लड़की कृष्ण का रूप धारण कर गीता का पाठ कैसे कर सकती है?ऐसा करने की इस्लाम इजाजत तो देता नहीं। फिर यह तो इस्लाम को न मानने और उसकी नाफरमानी करने जैसा है। कृष्ण के वेष में गीता पाठ करने वाली मेरठ की आलिया खान ने खुद के खिलाफ फतवा जारी करने वाले मौलाना को जवाब देते हुए कहा है कि इस्लाम इतना कमजोर नहीं है कि किसी के गीता पाठ करने या कृष्ण जैसा परिधान धारण करने से वह उससे खारिज हो जाए। आलिया ने फतवा जारी करने वालों से कहा है कि वे उसे अपनी राजनीति में न घसीटें। समझदार के लिए इशारा काफी होता है। उलमा को लगता है कि मुस्लिम बच्चों का इस तरह के कार्यक्रम में भागीदारी करना इस्लाम विरोधी है। बाल गंगाधर तिलक ने 101 साल पहले जिस लखनउ की धरती से ‘स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है’ का नारा दिया था, उसी धरती से गीता का वाचन करने वाली मुस्लिम बालिका के खिलाफ फतवा जारी करना सभ्य समाज की भावनाओं के प्रतिकूल तो है ही। 

आलिया खान के सस्वर गीता पाठ के बाद उत्तर प्रदेश के मुखिया योगी आदित्यनाथ ने मजहब के नाम पर विभाजन करने वालों को आलिया से सीखने की सलाह दी थी। उन्होंने कहा था कि आलिया खान का धर्म इस्लाम है, लेकिन जिस लय के साथ उसने गीता का गायन किया, वह सराहनीय है। आलिया खान की ललकार ही तो है जिसमें वह फतवे का डटकर मुकाबला करने की बात कह रही है। स्वराज्य का मतलब क्या है। हम अगर अपने पसंद के नाटक न कर सकें। अपनी पसंद की किताबें न पढ़ सकें। उलेमाओं को यह भी बताना चाहिए कि जो हिंदू बच्चे मदरसों में पढ़ते हैं क्या वे मुस्लिम विरोधी हो जाते हैं। सलमान खान गणेश जी की पूजा करते हैं तो वे इस्लाम विरोधी हो जाते हैं। देवबंद के ऑनलाइन फतवा विभाग संस्था के चेयरमैन मुफ्ती अरशद फारुकी मुस्लिम मामलों के विद्वान हैं, उनसे यह देश इस तरह के फतवे की उम्मीद नहीं करता। उन्होंने मुस्लिम छात्रा के गीता के श्लोक पढ़ने और श्रीकृष्ण का रूप धारण करने को शिर्क कहा है। अल्लाह के अलावा किसी दूसरे मजहब को मानना शिर्क है। उन्होंने स्कूल प्रबंधन से भी इस तरह के कार्यक्रमों में मुस्लिम बच्चों को शामिल न करने की अपील की है।सवाल यह है कि जब टीवी सीरियल सिया के राम में दानिश खान हनुमान का रोल कर सकते हैं तो आलिया के गीता पढने पर उलेमाओं को परेशानी क्यों हो रही है? कोई भी मजहब और उससे जुड़ी किताबें लोगों को राह दिखाने के लिए हैं, राह भटकाने के लिए नहीं। भाजपा नेताओं का विरोध करना अगर अभीष्ठ है तो खुलकर करें लेकिन एक बालिका को इस्लाम विरोधी करार देना और इस तरह परोक्ष रूप से उसे पूरे समुदाय का दुश्मन बना देना न ही न्यायसंगत है और न ही व्यावहारिक। मुस्लिम बच्चों को बेहतर तालीम मिले, सोचा तो इस दिशा में जाए। मजहबों की राजनीति से किसी को कुछ भी नहीं मिलने वाला है। फतवे अगर देश को तरक्की की राह पर ले जाएं तो उसका कुछ मतलब भी है। अन्यथा सभी को पता है कि फतवे तो होते ही रहते हैं। हमें कबीर, रहीम, रसखान की राह पर चलनी है। हमें सद्विचारों को गले लगाना है या बेवजह के विवादों को तूल देना है, इस पर विमर्श आज की सबसे बड़ी जरूरत है। 

(लेखक हिंदुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

 

 

 

 

 

 

 

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