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संपादकीय
चिकित्सकों की हड़ताल पर उठते सवाल
By Deshwani | Publish Date: 25/12/2017 4:01:58 PM
चिकित्सकों की हड़ताल पर उठते सवाल

सियाराम पांडेय ‘शांत’

राजस्थान में धरती के 9 हजार सरकारी भगवान हड़ताल पर हैं। वे अपने लिए समयबद्ध प्रोन्नति मांग रहे हैं। इलाज के अभाव में चार दिन में राजस्थान में 40 मरीज दम तोड़ चुके हैं। सभी जिला मुख्यालयों के बड़े अस्पतालों में इलाज ठप है। ग्रामीण इलाकों में जहां पर निजी अस्पतालों की सुविधा नहीं है, मरीज मारे-मारे फिर रहे हैं। जयपुर, उदयपुर, जोधपुर, अजमेर जैसे राज्य के बड़े अस्पतालों में भी जहां 4-5 हजार ऑपरेशन रोज होते थे, वहां अब मुश्किल से 15-20 ऑपरेशन ही हो रहे हैं। गंभीर रोगों से पीड़ित लोग इलाज के लिए राज्य से बाहर जाने को मजबूर हैं। राज्य में स्वास्थ्य सेवा सुचारू रखने के लिए सेना, बीएसएफ और रेलवे के डॉक्टरों की मदद ली जा रही है। 

सरकार ने चिकित्सकों की मनाने की हर संभव कोशिश भी की। नवंबर में हुई वार्ता के तहत चिकित्सकों की 12 मांगें मान भी ली गई हैं लेकिन चिकित्सक टस से मस नहीं हो रहे हैं। फलतः सरकार को 9 हड़ताली चिकित्सकों को निलंबित करना और 120 डॉक्टरों को हिरासत में लेना पड़ा। चिकित्सक नेताओं का इधर-उधर स्थानांतरण करना पड़ा। सरकार चिकित्सकों को 6 साल पर तरक्की देने को तैयार है यानी 18 साल में तीन बार तरक्की लेकिन डॉक्टरों का कहना है कि उन्हें 12 साल बाद 2 प्रोन्नति एक साथ मिले। सरकार का तर्क है कि बाकी विभागों के सरकारी कर्मचारी भी ऐसी ही मांग करेंगे। वह नजीर स्थापित नहीं करना चाहती। करना भी नहीं चाहिए क्योंकि हड़तालियों के साथ हुए समझौते राज्य की अर्थ व्यवस्था को भी प्रभावित करते हैं। चिकित्सकों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए लेकिन सरकार का पक्ष भी तो समझना चाहिए। अधिकार और दायित्व एक दूसरे से जुड़े हैं। अधिकारों की संपूर्ति के लिए दायित्वों की अनदेखी नहीं की जा सकती। सरकार को एस्मा लगाने जैसा कठोर कदम नहीं उठाना चाहिए था लेकिन जब राजस्थान उच्च न्यायालय के आदेश का भी अनुपालन न कर रहे हों तो उसे सख्त तो होना ही पड़ेगा। सरकार और चिकित्सकों के द्वंद्व में मरीजों की जिंदगी से खेलना न्यायसंगत तो नहीं है। 

अब तो एम्स जैसे प्रख्यात चिकित्सा संस्थान के डाॅक्टरों ने भी राजस्थान के चिकित्सकों के समर्थन में अपनी आवाज बुलंद कर दी है। एम्स के चिकित्सकों ने राजस्थान के चिकित्सकों की हड़ताल का न केवल समर्थन किया है बल्कि प्रधानमंत्री को भी इस बावत पत्र लिखा है कि वे एक दिन उनके साथ काम करें और यह महसूस करें कि चिकित्सकों पर काम का कितना दबाव है? चिकित्सकों के दबाव से इनकार नहीं किया जा सकता। यह देश चिकित्सकों के दबाव को समझता भी है लेकिन सरकारी चिकित्सालयों में आम मरीजों के साथ कुछ चिकित्सकों का उपेक्षापूर्ण व्यवहार भी किसी से छिपा नहीं है। प्रधानमंत्री को पत्र लिखना प्रासंगिक है लेकिन अच्छा तो यह होता कि एम्स के अनुभवी चिकित्सक राजस्थान के हड़ताली चिकित्सकों को समझाने और उन पर काम पर लौटने का दबाव बना पाते। आए दिन किसी न किसी मुद्दे पर चिकित्सक काम बंद कर देते हैं, यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। देश हित का तकाजा तो यह है कि इस सिलसिले पर रोक लगे। बात-बात पर हड़ताल उचित नहीं है। रही बात काम के दबाव की तो इसके लिए एक भजन की कुछ पंक्तियां याद आ रही है। 

‘जिंदगी जब तक रहेगी, फुर्सत न होगी काम से, कुछ समय ऐसा निकालो प्रेम कर लो राम से।’ जीवन में काम का दबाव तो होता ही है। वहां स्मूथ वर्किंग यानी कि आसानी से काम करने के लिए गुंजाइश नहीं होती। सहज कार्यशैली एकरूपता, नीरसता और कार्य को जैसे-तैसे निपटाने की यथास्थितिवादी रीति-नीति का परिचायक है। चिकित्सा क्षेत्र में यह स्थिति आम हो गई है। चिकित्सकों का तर्क है कि उन पर जरूरत से अधिक काम का दबाव है। गंभीर मरीजों के साथ आए तीमारदार अक्सर उनके साथ अभद्रता करते हैं। ऐसे में उन्हें अपना काम निपटाने में परेशानी होती है। दूसरी तरफ मरीजों का तर्क है कि चिकित्सक उन्हें ठीक से देखते नहीं। इलाज में लापरवाही करते हैं। अस्पताल में मरीजों की भीड़ लगी रहती है और डाॅक्टर आपस में बतियाते रहते हैं। 

सरकारी अस्पतालों में अगर जान-पहचान नहीं है तो इलाज कराना मुश्किल होता है। गंभीर मरीजों को तत्काल इलाज की दरकार होती है लेकिन कागजी औपचारिकताओं में ही तीमारदारों का अधिकांश समय जाया हो जाता है। इसके बाद भी जरूरी नहीं कि डाॅक्टर उनके मरीज को तुरंत देख ही लें। कदाचित मरीज अस्पताल में भर्ती हो भी जाए तो भी उसका निरीक्षण ठीक से नहीं हो पाता। अस्पताल के कर्मचारी भी मरीजों की बहुधा उपेक्षा करते नजर आते हैं। मरीज अगर किसी संक्रामक रोग से ग्रस्त निकला तो उसके साथ चिकित्सक का व्यवहार अछूतों जैसा ही होता है। वे उसका इलाज दूर से ही करना पसंद करते हैं। यह सब लग्गे से पानी पिलाने जैसा ही है। ऐसे में तीमारदारों और डाॅक्टरों के बीच खींचतान और तनातनी स्वाभाविक है। 

उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, मध्यप्रदेश, झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ समेत देश के अनेक राज्यों में चिकित्सक और चिकित्साकर्मी आए दिन अपनी मांगों को लेकर हड़ताल करते रहते हैं। प्रधानमंत्री को भी पता है कि देश में डाॅक्टरों की कमी है। जितने डाॅक्टर चाहिए, जितने डाॅक्टर नहीं हैं। गांवों में बने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर कोई डाॅक्टर जाना नहीं चाहता। जो जाता है, वह भी फर्जअदायगी तक ही सिमट कर रह जाता है। उसका वहां होना या न होना बराबर ही होता है। वे इस व्यवस्था को ठीक करने में जुटे भी हैं। जन-जन तक चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने का उनकी सरकार का वादा भी है। आजादी के सात दशक बाद भी भारत की 70 फीसदी स्वास्थ्य सेवाएं देश के 20 बड़े शहरों तक ही सीमित हंै। वे इस व्यवस्था में बदलाव लाना चाहते हैं। चिकित्सक भी इस बात को समझते हैं। वर्षों की बीमारी एक झटके में दूर नहीं हो सकती। समय तो लगता ही है। काश, चिकित्सक अपने धैर्य का परिचय दे पाते। अगर छोटे शहरों, कस्बों की बात करें तो वहां बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की आज भी कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो भारत में 1.40 लाख चिकित्सकों और पौने तीन लाख नर्सों की कमी है। 

तीन साल पहले जो आंकड़े सामने आए थे, उसके मुताबिक देश के छह नए एम्स में डॉक्टरों की भर्ती केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के लिए चुनौती बनी हुई थी। बार-बार विज्ञापन और साक्षात्कार के बावजूद चिकित्सक ऋषिकेश, जोधपुर, भोपाल, रायपुर, पटना और भुवनेश्वर के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में काम करने को तैयार नहीं हो रहे थे। अब क्या स्थिति है, इस पर एम्स से जुड़े चिकित्सक बेहतर बता सकते हैं। मोदी सरकार देश के प्रमुख मेडिकल संस्थानों से सेवानिवृत्त डॉक्टरों को नियुक्त करने की तैयारी कर रही है। चिकित्सकों और फैकल्टी की कमी के कारण उक्त छह एम्स में अब तक पूरी तरह काम शुरू नहीं हो पाया है। दो बार जोधपुर, भोपाल, पटना, रायपुर, भुवनेश्वर और ऋषिकेश एम्स के लिए 1,300 पदों के लिए विज्ञापन दिए गए। इनमें सिर्फ 300 का चयन हुआ। उसमें से भी सिर्फ 200 चिकित्सकों ने ही कार्यभार संभाला। कार्य का दबाव कम करने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय 70 साल की उम्र तक के सेवानिवृत्त डॉक्टरों को अनुबंध पर रखने पर विचार कर रहा है। इन पदों के लिए ऐसे डॉक्टरों से अनुबंध किए जा रहे हैं,किए भी गए हैं जो पीजीआइ-चंडीगढ़ और एम्स नई दिल्ली जैसे चिकित्सा संस्थानों से सेवानिवृत्त हुए हैं। 

योजना आयोग की कुछ साल पहले जो रिपोर्ट आई थी, उस पर भरोसा करें तो देश के 6 लाख गांव डाक्टरों और चिकित्सा सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं। इन इलाकों में 21490 डाॅक्टरों की जगह केवल 5910 डाॅक्टर कार्यरत हैं। यही हाल सामुदायिक चिकित्सा केन्द्रों के भी हैं जहां 31388 डाॅक्टरों के सापेक्ष केवल 20308 डाॅक्टर तैनात हंै। योजना आयोग की इस रिपोर्ट में अरूणाचल, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश , झारखंड, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, मध्यप्रदेश,नागालैंड, उड़ीसा राजस्थान, सिक्किम, त्रिपुरा और उत्तर प्रदेश को ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं के लिहाज से बेहद कमजोर माना गया था।

एक सर्वे पर यकीन करें तो स्थिति और भी भयावह है। देश में करीब 6 लाख डाक्टरों, दस लाख नर्सों और दो लाख से भी ज्यादा डेन्टल सर्जनों की कमी है। इस सर्वे के मुताबिक भारत में हर दस हजार व्यक्ति पर दस डाॅक्टर हैं वहीं आस्ट्रेलिया में प्रति 10 हजार पर 249, यूके में 166, कनाडा में 209 और यूएस में 548 डाॅक्टर हैं। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने जो आंकड़े बताए थे, अगर उन पर गौर करें तो देश में कुल 683682 ऐलोपैथी के डाॅक्टर हैं जबकि 6 लाख चिकित्सक अन्य चिकित्सा पद्धतियों के हैं। हाल ही में मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग द्वारा चयनित 140 डॅाक्टरों ने कुछ दिनों के बाद ही सरकारी नौकरी छोड़ दी थी। वर्ष 2013 में सरकार ने 825 डॅाक्टरों की पदस्थापना के आदेश जारी किए थे पर आदेश जारी होने के बाद भी 351 डॅाक्टरों ने तो नौकरी ही ज्वाॅइन नहीं की। जिन 474 ने आमद दी, उनमें से 140 ने नौकरी छोड़ दी। इसका कारण था कि इन चिकित्सकों को प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों, छोटे शहरों के सिविल और जिला अस्पतालों में नियुक्त किया गया था। जहां पहले से ही डाॅक्टरों की कमी हो, ऐसे में डाॅक्टरों की मरीजों के इलाज में लापरवाही या हड़ताल क्या उचित है? चिकित्सकों को हड़ताल पर जाना चाहिए या नहीं, यह अपने आप में बड़ा सवाल है। चिकित्सकों की भी अपनी समस्याएं होती हैं। उन समस्याओं का समाधान होना चाहिए। यह सरकार का पक्ष है लेकिन सरकार की जनस्वास्थ्य की चिंताओं को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। चिकित्सा सेवा महत्वपूर्ण सेवा है। चिकित्सकों को मरीजों के हितों का ध्यान देना चाहिए। दबाव की राजनीति करने की बजाय उन्हें सेवा धर्म को महत्व देना चाहिए। यही वक्त और लोकहित का तकाजा भी है।

(लेखक हिंदुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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