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संपादकीय
विश्वविद्यालयों की भूमिका और दायित्वबोध पर सवाल
By Deshwani | Publish Date: 20/12/2017 12:09:55 PM
विश्वविद्यालयों की भूमिका और दायित्वबोध पर सवाल

सियाराम पांडेय ‘शांत’

प्रख्यात खगोल विज्ञानी पद्मविभूषण डॉ. जयंत विष्णु नार्लीकर की इस बात में दम है कि भारत में क्षमता व योग्यता की कमी नहीं है। भारत की योग्यता और क्षमता का लोहा पूरा संसार मानता है लेकिन विचारणीय और चिंताजनक बात यह भी है कि क्या यह देश अपनी प्रतिभाओं की योग्यता और दक्षता का समुचित उपयोग कर पा रहा है। ऐसी क्या वजह है कि एक भी भारतीय विश्वविद्यालय अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों के मानक पर खरा नहीं उतरता? इतिहास में जाएं तो हमारे विश्वविद्यालय सातवीं सदी में उत्कृष्टता के सर्वोच्च सोपान पर थे। दुनिया भर में उनका नाम था। दुनिया भर के विद्यार्थी वह अध्ययनार्थ आते थे। नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय बनाना आज भी भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। आज देश के कुछ बड़े विश्वविद्यालय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देशविरोधी आचरण का भी समर्थन करते नजर आते हैं। इस तरह के हालात श्लाघनीय अर्थात प्रशांसा योग्य तो नहीं ही कहे जा सकते। 

 

इस देश की चिकित्सा पद्धति का कोई जोड़ नहीं है। विश्व में पहला अंग प्रत्यारोपण भारत में हुआ। मुर्दों को भी जीवन देने और घायलों को एक दिन में ठीक कर देने का लाघव भारत के पास रहा है लेकिन आज हम चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में कहां खड़े हैं? जिस क्षयरोग का इलाज इस देश के आयुर्वेदाचार्य गौमूत्र से कर लेते थे, उसी रोग के इलाज में वर्षों खपाने के बाद भी चिकित्सक इस बात के लिए आश्वस्त नहीं कर पाते कि क्षय रोग जड़ से ठीक हो ही जाएगा। अपनी चिकित्सा पद्धति भारत पर थोपने के चक्कर में अंग्रेजों ने आयुर्वेदिक चिकित्सा की कितनी दुर्गति की है, यह किसी से छिपी नहीं है।

 

भारत विश्वगुरु रहा है। वह शायद इसलिए कि वह खोज करता था। सिद्धांत देता ही नहीं, उसकी जनोपयोगी व्याख्या भी करता था। उसे युगानुकूल बनाता ही नहीं, देश-दुनिया को उसे अपनाने के लिए प्रेरित करता था। इस देश के गुरुकुल आर्थिक रूप से भले ही समृद्ध न रहे हों लेकिन वैचारिक रूप से, ज्ञान दान के मामले में उनकी विलक्षणता का कहीं कोई जवाब नहीं है। गुरुकुल का आचार्य अपने छात्रों को विद्या देता था। विद्या का अर्थ होता है तकनीक। विधा। एक-एक छात्र चैदह-चैदह विद्याओं में पारंगत होता था। वह विद्या अर्थकरी, भोगकरी,यशकरी और सुखकरी हुआ करती थी। सा विद्या या विमुक्तये ऐसा कहा जाता था। आज शिक्षा लेने में पसीने छूट जाते हैं। आज की महंगी शिक्षा अभिभावकों के लिए जी का जंजाल बन गई है और इसके बाद भी काम की गारंटी नहीं। आज भारत शिक्षा तक सिमट कर रह गया है। पहले आचार्य वह विद्या देता था जो शिष्य को समस्याओं के मकड़जाल से निजात दिलाती थी। आज पढ़ा-लिखा युवक सर्वाधिक समस्याग्रस्त है। वह आजीविका के लिए नौकरी तक सिमट कर रह गया है।

 

जिस देश में घाघ जैसा कवि ‘उत्तम खेती, मध्यम बान। निषिध चाकरी, भीख निदान’ जैसा गूढ़ संदेश देता रहा है, उस देश में कृषि की क्या दुर्दशा है, यह किसी से छिपा नहीं है। नौकरी इस देश की प्राथमिकता बन चुकी है। आज शिक्षा इस देश के युवाओं के लिए एक अच्छी और अदद नौकरी पाने का जरिया भर है। राजनीतिक दलों के चुनाव भी रोजगार देने के वादों के साथ लड़े जाते हैं। आजादी के लंबे समय बाद किसी प्रधानमंत्री ने भारत को विश्वगुरु बनाने का सपना देखा है। इसके लिए वे देश की शिक्षा व्यवस्था के मोर्चे पर काम भी कर रहे हैं। दुनिया के बाकी देशों के विश्वविद्यालय किस तरह की शिक्षा दे रहे हैं, उसका अनुकरण किया जा रहा है। कभी पूरी दुनिया भारत का अनुकरण करती थी। भारत की नदियां, यहां का भूगोल, यहां का गौरवमय इतिहास पूरी दुनिया को आज भी प्रेरणा लेने को विवश करता है लेकिन हमें विदेशी सरजमी की सुंदरता, स्वच्छता तो आकृष्ट करती है लेकिन हमारा अपना जो पूरी दुनिया को अपनी ओर खींचता है, वह हमें फुसफुसा क्यों लगता है, नीरस क्यों लगता है,यह अपने आप में बेहद जटिल सवाल है। जिस देश ने पूरी दुनिया को अपने ज्ञान-विज्ञान से चमत्कृत किया है, उस देश के अध्येता, राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी विदेश जाकर व्यवस्था के, सुशासन के गुर सीखते हैं। इसे किस तरह का चमत्कार माना जाए। जो देश मेलों, त्यौहारों का देश है, उस देश की मेला व्यवस्था की निगरानी विदेशी एजेंसी करती है। हमारी नदियों की स्वच्छता की जिम्मेदारी अन्य देश उठाने को तैयार रहते हैं, यह हमारी नाकामी है या मानसिक गुलामी, विचार तो इस पर होना चाहिए। 

 

शब्द, अक्षर, स्वर और व्यंजन का जनक भारत ही रहा है। यह वह देश है जिसने पूरी दुनिया को जीवन जीने के संस्कार दिए हैं। यहां की संस्कृति और सभ्यता पूरी दुनिया के अनुकरणीय और महनीय रही है। आज भी विदेशी भारत से सीखते हैं लेकिन भारत को अपनी संस्कृति और सभ्यता पर कितना गर्व है, यह सवालों के घेरे में हैं। भारत के दो विश्वविद्यालय नालंदा और तक्षशिक्षा विश्व विश्रुत थे। यह शोध चिंतन के केंद्र थे। हर समस्या के समाधान का पर्याप्त दर्शन यहां विद्यमान था। जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं था जिस पर शोध न हुआ हो। प्रकृति के संरक्षण से लेकर, कुटीर उद्योगों के संचालन, भाषा, कला के विकास, शास्त्रार्थ की शानदार परंपरा इस देश में रही है। यहां के ऋ़षि, मुनि, आखर्य गुरुकुल में रहकर, जंगलों में तपस्या करते हुए शोध किया करते थे लेकिन आज शोध का तत्व इस देश से गायब हो गया है। अब शोध का स्थान रिसर्च ने ले लिया है। जो मौजूद है, उसे ही नए रंग-रूप में परोसने की कोशिश हो रही है। ऐसा भी ईमानदारी के साथ होता तो भी इस देश का भला होता। शोध इस देश की जरूरत है।

 

सवा अरब की आबादी वाले देश में जिस त्वरित गति से शोध कार्य होने चाहिए थे, वैसा कुछ हो नहीं पा रहा है। जिन शोध के उद्देश्यों के साथ विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई थी, विश्वविद्यालय उन उद्देश्यों से भटक गए। स्नातक और स्नातकोत्तर की डिग्री देना विश्वविद्यालयों की स्थापना का उद्देश्य कभी नहीं रहा लेकिन विश्वविद्यालय डिग्री देने तक ही सिमट गए। जो काम महाविद्यालयों का था। अगर उसे विश्वविद्यालय करने लगेंगे तो शोध का क्या होगा? जो रिसर्च कार्य हो रहे हैं, उसमें किस तरह का कूड़ा-कचरा एकत्र किया जा रहा है, यह भी किसी से छिपा नहीं है।

 

डॉ. नार्लीकर ने डीडीयू के 36 वें दीक्षांत समारोह को बतौर मुख्य अतिथि संबोधित करते हुए कहा है कि उनका विद्यार्थी जीवन बनारस में बीता। इस जीवन का अगला भाग कैंब्रिज जैसे महान विवि में बीता। अभी आठ साल पहले इस विश्वविद्यालय ने अपनी आठवीं जन्मशताब्दी मनाई है। वहां के एक विद्यार्थी के शोध प्रबंध पर आधारित प्रश्न शिक्षक ने प्रश्न पत्र में शामिल किया था। उसका उत्तर दो छात्रों ने दिया था, जिसमें एक ने यह शोध पत्र पढ़ कर दिया था जबकि दूसरे ने खुद शोध प्रबंध लिखा था। उन्होंने सलाह दी कि विद्यार्थियों को शोध प्रबंध लिखने चाहिए। कोई कहेगा तभी लिखेगा, ऐसा नहीं होना चाहिए। वास्तव में शिक्षा व अनुसंधान एक साथ चलते हैं और दोनों एक दूसरे को नए सिरे से प्रोत्साहित करते हैं। दुर्भाग्य से हमारे विवि शोध पर बहुत कम बल देते हैं। यही कारण है कि हमारे छात्र नए अनुसंधान से प्राप्त रोमांच से वंचित रह जाते हैं। विदेशी विश्वविद्यालयों में शिक्षा व अनुसंधान की परंपरा है। काष, हम इससे प्रेरणा ले पाते। विदेश से तकनीक हासिल करने से बेहतर तो यह होता कि हम अपने पंचतत्वों पर विश्वास करते। डाॅ. भाभा ने पानी से हाइडोजन बम बनाकर पूरी दुनिया को चमत्कृत कर दिया था। इस देश के इंजीनियर, वैज्ञानिक तरह-तरह के विलक्षण शोध कर रहे हैं, उन शोध प्रबंधों को आगे बढ़ाने की दिशा में गंभीर प्रयास किए जाने चाहिए। मनु स्मृति और चाणक्य के अर्थ शास्त्र में पंच स्तरीय पंचायत व्यवस्था का जिक्र है। क्या वजह है कि आजादी के सत्तर साल बाद भी हम त्रिस्तरीय पंचायती राज तक सिमटे हुए हैं। उसी की व्यवस्था ठीक से नहीं कर पा रहे हैं। भारत के हर नागरिक को अपनी गौरव गरिमा का ध्यान देना होगा। राजनीतिक दलों को भी मिथ्याभिमान से उपर उठकर देश को आगे बढ़ाने के संदर्भ में ही सोचना होगा। भ्रष्टाचार और अनैतिक विकास को हतोत्साहित किए जाने की जरूरत है। देश को आगे ले जाना है तो शिक्षालयों में नैतिक शिक्षा का पदार्पण होना ही चाहिए। रोटी,कपड़ा और मकान तो इस देश की जरूरत है ही लेकिन नैतिक उत्थान के बिना यह उद्देश्य कभी पूरा नहीं हो सकता। अच्छा तो यह होगा कि देश के हुक्मरान शिक्षा को व्यावहारिक, रोजगारपरक बनाएं। इसके लिए अगर पाठ्यक्रम में अगर संशोधन भी करना हो तो भी किया जाना चाहिए। विश्वविद्यालयों पर मौलिक शोध-अनुसंधानों का भी दबाव बनाना चाहिए। महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के दायित्व तय किए बगैर इस देश की शिक्षा व्यवस्था और गौरव गरिमा में चार चांद नहीं लगाया जा सकता।

-लेखक हिंदुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।

 
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