प्रायः किसी महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव प्रक्रिया के दौरान कोई पार्टी अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष पद में बदलाव नहीं करती। इसके पीछे जोखिम होता है। जीत गए तो गनीमत,पराजित हुए तो सिर मुड़ाते ओले वाली बात हो जाती है। कांग्रेस ने गुजरात विधानसभा चुनाव के समय राहुल गांधी की ताजपोशी का निर्णय लिया था। चुनाव तो सभी जानते थे कि औपचारिकता मात्र है। फिर भी कांग्रेस इस प्रक्रिया और राहुल के प्रति राष्ट्रीय अध्यक्ष वाली हमदर्दी का भी लाभ उठाना चाहती थी। उसने इसबार गुजरात जीतने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी। उसे इस बार वहाँ अपने लिए अनुकूलता दिखाई दे रही थी। नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद यह पहला चुनाव था। जातिवादी आंदोलनों के युवा नेता भाजपा के खिलाफ बिगुल फूंक रहे थे। कांग्रेस को लगा होगा कि वह सत्ता वीरोधी लहर का लाभ उठा लेगी। राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया इसी दौरान चली। अठारह को चुनाव परिणाम आने थे। सोलह को राहुल राष्ट्रीय अध्यक्ष बने जाहिर है यदि गुजरात में कांग्रेस को बहुमत मिलता तो ,लोकसभा चुनाव तक ढोल नगाड़े बजते रहते। कांग्रेस को अपने से ज्यादा जातिवादी युवा नेता हार्दिक पटेल,अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश पर था। व्यापारियों, उद्योगपतियों को भी वह जीएसटी और नोटबन्दी से परेशान समझ रही थी। मतलब कांग्रेस की नजर में भाजपा की जीत असंभव थी। रणनीतिकारों ने सुनियोजित ढंग से राहुल की ताजपोशी का यह समय चुना। लेकिन पदनाम के अलावा कांग्रेस में किसी बदलाव की संभावना तलाशना गलत था।राहुल गांधी जैसे थे वैसे ही है। नरेंद्र मोदी के प्रति उनकी नाराजगी और उसको अभिव्यक्त करने का तरीका पहले ही जैसा था। आर्थिक मोर्चा संभालने के लिये भी वही मनमोहन सिंह और पी चिदम्बरम उनके कमांडर थे। राजनीति करने के लिए मणिशंकर अय्यर,कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी,सलमान खुर्शीद आदि लोग पहले की तरह महत्वपूर्ण बने रहे।
यह भी संयोग है कि राहुल की ताजपोशी के दौरान ही उनके सिपहसालारों ने भी उन्हें मुद्दे भेंट किये। इनको भाजपा ने लपक लिया। कांग्रेस के प्रवक्ता सफाई देते रहे,लेकिन तीर निशाने से निकल चुके थे। राहुल के दिग्गज सहयोगियों ने भाजपा को मुद्दे दिए। वैसे इस दौड़ में राहुल भी पीछे नहीं थे। रही सही कसर मनमोहन सिंह,पी चिदम्बरम,मणिशंकर अय्यर और कपिल सिब्बल ने पूरी कर दी।
कांग्रेस ने तय किया था कि भजपा पर राजनीतिक हमले राहुल खुद करेंगे। जबकि आर्थिक मोर्चा मनमोहन सिंह संभालेगे। मनमोहन सिंह गुजरात पहुंच भी गए। उनकी जनसभा में जन की कितनी दिलचस्पी रहती है, यह बताने की जरूरत नहीं है। खैर, उन्होंने पार्टी के राजनीतिक एजेंडे के हिसाब से नोटबन्दी और जीएसटी पर हमला बोलना शुरू किया। मनमोहन सिंह बोले। भाजपा को मुद्दा मिला। वह दस वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे। वह खूब बढ़िया जीएसटी ले आते। यह कहने से कम नहीं चलेगा कि तब विपक्षी भाजपा ने सहयोग नहीं किया। सच्चाई यह है कि सहयोग लेने का कोई सार्थक प्रयास नही किया गया। वही भाजपा के लिए कांग्रेस का साथ लेना आसान नहीं था। फिर भी उसने एड़ी चोटी का जोर लगाकर कांग्रेस सहित अन्य पार्टियों को सहमत किया। तब जाकर जीएसटी संविधान संशोधन बिल पारित हुआ। अव्वल तो कांग्रेस को नैतिक रूप से विरोध का अधिकार नहीं है। वह सुधार चाहती है, तो जीएसटी काउंसिल में सुझाव दे सकती है। लेकिन इसे गब्बर सिंह टैक्स बताना मनमोहन और उनकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने राहुल के पूर्वाग्रह को ही उजागर करता है। ऐसे ही नोटबन्दी भी मनमोहन सिंह के समय में होनी चाहिए थी। लेकिन वह साहस नहीं दिखा सके।
इस प्रकार मनमोहन सिंह ने गुजरात मे भाजपा को बड़ा मुद्दा दिया। यह चर्च हुई कि कांग्रेस यूपीए समय की घोटाला व्यवस्था को जारी रखना चाहती है। वह घोटालों पर आंख बंद रखने वाला प्रधानमंत्री,मुख्यमंत्री चाहती है।
राहुल गांधी की औपचारिक ताजपोशी के पहले ही मणिशंकर अय्यर और कपिल सिब्बल ने माहौल बिगाड़ दिया था। अय्यर एक बयान से संतुष्ट नही हुए। पहले उन्होंने मुगल सल्तनत का उदाहरण दिया। उसका विवाद थमा नहीं कि नीच शब्द ने तूफान ला दिया। कांग्रेस में आंतरिक प्रजातन्त्र साबित करने के लिये उन्हें पूरी दुनिया में अन्य कोई उदाहरण ही नहीं मिला। कहा कि जहांगीर के बाद शाहजहाँ,शाहजहाँ के बाद औरंगजेब बादशाह होगा यह सबको पता था। लेकिन कांग्रेस में प्रजातन्त्र है। अगला अध्यक्ष कौन होगा, कोई नहीं जानता। अय्यर के इस उदाहरण ने फिर गुजरात चुनाव में भाजपा को मुद्दा दिया। वस्तुतः अय्यर का औरंगजेब संबन्धी उदाहरण ही कांग्रेस अध्यक्ष पर सटीक बैठ रहा यह। गांधी नेहरू परिवार से राहुल छठवें अध्यक्ष होंगे। यह प्रजातन्त्र में वंशवाद का उदाहरण है। भाजपा इसका विरोध करती रही है।
अपने ही दिग्गजों के इन मसलों से गुजरात में कांग्रेस परेशान थी। वह इनसे उबरने के प्रयास करती ,तभी कपिल सिब्बल के प्रकरण ने इन सबको पीछे छोड़ दिया। पता चला कि सुप्रीम कोर्ट में वह न केवल सुन्नी वक्फ बोर्ड की पैरिवी बल्कि उन्होंने आगामी लोकसभा चुनाव तक रामजन्म भूमि मंदिर की सुनवाई को टालने की अपील की थी। एक तरफ राहुल गुजरात में अपनी उदार छवि दिखाने को मंदिरों में जाने का रिकॉर्ड बना रहे थे,दूसरी तरफ उनके कोर ग्रुप के सदस्य सिब्बल सुन्नी वक्फ बोर्ड की पैरवी कर रहे थे। हो सकता है कि दो नावों की भांति कांग्रेस ने सबको एक साथ खुश करने का प्रयास किया हो। लेकिन ऐसे प्रयास दोनों तरफ से नुकसान पहुंचाते है। यह भी गुजरात चुनाव का मुद्दा बन गया।
ऐसा नहीं कि इन सब के बीच विकास का मुद्दा पीछे रह गया। नरेंद्र मोदी अपनी प्रत्येक जनसभा में विकास का मुद्दा अवश्य उठाते थे। भाजपा शासन में गुजरात का विकास हुआ है। इस मुद्दे पर कांग्रेस ही घिर जाती है। दशकों से अटकी योजनाएं नरेंद्र मोदी के प्रयासों से पूरी हुई। यूपीए सरकार के समय इन्हें रोकने का कार्य किया गया था। कांग्रेस को इन सबका जबाब देना पड़ रहा था। विपक्ष में होकर भी वह बचाव की मुद्रा में आ गई।
गुजरात चुनाव को पिछले दो दशक से कांग्रेस प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर लड़ती रही है। नरेंद्र मोदी उसके लिए राजनीतिक दुश्मन नम्बर वन रहे है। लेकिन बेहिसाब हमले के बाद भी उसे सफलता नहीं मिली। नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटे तो प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन कांग्रेस गुजरात में विकल्प नहीं पेश कर सकी।
कांग्रेस के संघठन शीर्ष पर परिवर्तन हुआ। किन्तु व्यक्ति और विचार के स्तर पर यथास्थिति कायम है। उपाध्यक्ष होते हुए भी राहुल गांधी शिखर पर थे। पार्टी उन्हीं के इशारे पर चलती थी। जब सोनिया गांधी को कोई आपत्ति नहीं थी,तो फिर और किसकी मजाल जो बोल सके। एक दो नेताओं ने भड़ास निकलने की कोशिश की। उन्हें हाशिये पर पहुंचा दिया गया। जाहिर है कि यह बदलाव औपचारिकता के निर्वाह से ज्यादा कुछ नहीं है। सोनिया जी की अस्वस्थता के चलते यह अपरिहार्य भी हो गया था। इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था। सोनिया गांधी तो तीन वर्ष से पीछे पड़ी थी। राहुल ही न जाने क्यों बिलम्ब कर रहे थे। अंततः गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान ही राहुल की ताजपोशी का निर्णय हुआ। लेकिन जब किसी पार्टी की स्थिति कमजोर होती है, तब सामान्य कठिनाई से भी उसका निकलना मुश्किल हो जाता है।
इतना ही नहीं जो उसके साथ हाँथ मिलाता है,उसे भी नुकसान होता है। गुजरात में कांग्रेस का शीर्ष बदलाव कोई प्रभाव छोड़ने में नाकाम हो रहा है।
-(लेखक वरिष्ठ स्तम्भकार हैं)