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संपादकीय
शहरों में समान सोच की सरकार बनाना ही योगी-लक्ष्य : सियाराम पांडेय ‘शांत ’
By Deshwani | Publish Date: 25/11/2017 7:11:05 PM
शहरों में समान सोच की सरकार बनाना ही योगी-लक्ष्य : सियाराम पांडेय ‘शांत ’

उत्तर प्रदेश शहरी निकाय का चुनाव भाजपा के लिए प्रतिष्ठा का विषय बना हुआ है। इस चुनाव में भाजपा कोई कोताही नहीं बरत रही है। उसका मानना है कि अगर उत्तर प्रदेश का विकास करना है, उसे देश का सर्वोत्तम प्रदेश बनाना है तो हर मोर्चे को मजबूत करना ही होगा। जिस तरह युद्ध में चक्रव्यूह,  आदि बनाए जाते हैं और पहले से ही हर मोर्चे पर मजबूत सेनानायकों और सैनिकों की तैनाती की जाती है। उसी तरह भाजपा भी किसी मोर्चे को कमजोर नहीं रहने देना चाहती। उसका मानना है कि ग्राम प्रधान से लेकर पार्षद तक, महापौर, नगर पंचायत अध्यक्ष जैसे पदों पर राष्टवादी सोच का आदमी बैठना चाहिए, तभी विकास के रथ को आगे ले जाया सकता है। एक भी ठीया कमजोर होने का मतलब है विकास चक्र का टूट जाना और यह राजनीतिक इतिहास की सबसे बड़ी भूल होगी। 

कुछ प्रतिभासंपन्न लोग अपवाद होते हैं जो अकेले रहकर भी बहुत अच्छा कर लेते हैं। उन्हें खुद पर भरोसा होता है। हम यह नहीं कहते कि भाजपा को खुद पर भरोसा नहीं लेकिन वह ‘संघे शक्ति’ और ‘दो एक एकादश’ की रणनीति में विश्वास रखती है। दस-पांच की लाठी एक का बोझ बनने वाली कहावत को विकास के मैदान में चरितार्थ होना नीतिसंगत भी नहीं है। वेद वाक्य है कि ‘सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं कुरुवावहै।’ साथ-साथ चलें, साथ-साथ पढ़ें, साथ-साथ बोलें, साथ-साथ भोजन करें और साथ-साथ पराक्रम करें। वेद देवता का यह आदेश देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिहाज से है। साथ-साथ काम करने में कोई लुकाव-छिपाव नहीं होता। एक दूसरे के प्रति कोई दुराव नहीं होता। शायद इसीलिए नरेंद्र मोदी ने सबका साथ-सबका विकास का सर्वथा हिट नारा दिया था। इसका असर लोकसभा और विधानसभा के कई चुनावों में भाजपा की प्रचंड जीत के रूप में देखने को मिला भी। योगी आदित्यनाथ भी उसी राह पर आगे बढ़ रहे हैं। वह भी सबका साथ, सबका विकास के पक्षधर हैं। शायद यही वजह है कि नगर पंचायत अध्यक्ष पद पर कई मुस्लिम प्रत्याशी भाजपा की ओर से उतारे गए हैं। इस चुनाव में भाजपा ने समाज के सभी वर्गों को साधने का प्रयास किया है। यह अलग बात है कि अनुप्रिया पटेल और ओमप्रकाश राजभर की पार्टी भी शहरी निकाय चुनाव में भाजपा को चुनौती दे रही है। 

भारत के राजनीतिक इतिहास में यह पहला अवसर है जब शहरी निकाय चुनाव सभी दलों द्वारा लड़ा जा रहा है। उनके अपने चुनाव निशान पर लड़ा जा रहा है। पहले इस चुनाव को सामान्य चुनाव माना जाता था लेकिन इस बार यह चुनाव दो कारणों से महत्वपूर्ण हो गया है। पहला यह कि नीचे से ऊपर तक समान सोच के लोग रहें जिससे विकास कार्यों में अनावश्यक अवरोध न हो। व्यवधान के हालात न बनें। दूसरा यह कि देश और देश के बाहर यह संदेश समान भाव से जाए कि केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ दल को भारतीय जनमानस का पूर्ण समर्थन है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के मंत्री और भाजपा विधायक यहां तक कि खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी अगर राज्य भर में शहरी निकाय चुनाव में प्रचार कर रहे हैं तो इसका मतलब यह नहीं कि वे डरे हुए हैं। भाजपा के प्रति माहौल तो अभी भी यथावत है। नोटबंदी और जीएसटी को लेकर विपक्ष जरूर लोगों को भ्रमित करने में जुटा है लेकिन इसके दूरगामी प्रभावों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। अगर ईमानदारी से जीएसटी लागू हो तो व्यापार से भ्रष्टाचार की गुंजाइश खत्म हो जाएगी। बैंकों से आधार कार्ड जुड़ने पर, हर सरकारी कार्यों में आधार कार्ड की अनिवार्यता से भ्रष्टाचारियों का कुछ भी गोपनीय नहीं रह जाएगा। आम आदमी के पास छिपाने के लिए कुछ नहीं होता। आम आदमी की ओर से अपनी देनदारी भी लाख परेशानियों के बावजूद समय पर अदा करने की कोशिश होती है। बहुत मजबूरी हो तो और बात है? डिफाल्टर आम आदमी नहीं, बड़े लोग ही होते हैं। यह और बात है कि जब बड़े आदमियों का गला फंसता है तो वे अपने बचाव में ढाल भी आम आदमी को ही बनाते हैं। यह भी सच है कि बदलाव से आम आदमी को परेशानी होती है। पूंजीपतियों पर छापा पड़ता है, लाखों-करोड़ों रुपये जब्त होते हैं तो उनके यहां कार्यरत आम आदमी की ही नौकरी जाती है। समय पर उसके वेतन भत्ते नहीं मिल पाते और वह सफर करता है लेकिन उसे इतना तो पता होता ही है कि गलत करने वाले को एक न एक दिन सजा जरूर मिलती है। ‘ जैसी करनी वैसा फल, आज नहीं तो निश्चय कल।’ भाजपा नीत केंद्र और यूपी सरकार ने व्यवस्था में सुधार का प्रयास किया है। इसका निकट भविष्य में बड़ा लाभ होने वाला है। जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ अब जनता को बिचैलियों के जरिए नहीं मिल रहा, वरन उसके खाते में सीधे पैसा पहुंच रहा है। सरकार को भी संतोष है और पब्लिक को भी। जो कुछ भी हो रहा है, ठीक हो रहा है। आगे जो कुछ भी होगा ठीक ही होगा। 

नवाबों के शहर लखनऊ में तो इतिहास बनने वाला है। महिला सशक्तिकरण का दस्तावेज लिखा जाने वाला है। इसकी मूल वजह है कि यहां सौ साल बाद पहली महिला महापौर चुनी जाएगी। शहरी निकाय चुनाव के दूसरे चरण में मतदाता किसी महिला को उत्तर प्रदेश की राजधानी का भाग्य विधाता चुनेंगे। यूं तो लखनऊ नगर निगम पर पिछले 22 साल से भाजपा का आधिपत्य रहा है। विपक्ष का आरोप है कि जब इतने साल में भाजपा ने कुछ नहीं किया तो अब क्या कर लेगी? भाजपा के भी आरोप में दम है कि जब उसकी पार्टी का मेयर होता था तो सरकार किसी और दल की होती थी। विकास के क्षेत्र में श्रेय और प्रेय का खेल चलता है। सरकार से सहयोग नहीं मिला। अब उसकी सरकार है तो काम भी हो रहा है। भाजपा की मेयर बनती है तो शहर में स्थापना सुविधाओं के विकास का पहिया और तेजी से घूमेगा। यह स्थिति प्रदेश के सभी शहरों के साथ है। शहर में जिस तरह की टक्कर है। सपा, बसपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, अपना दल समेत अनेक राजनीतिक दल मैदान में ताल ठोंक रहे हैं, उसे देखते हुए यह तो कहना ही होगा कि इस बार संग्राम बहुत भीषण है। परिणाम कुछ भी हो सकता है। यह बताने में संकोच नहीं होना चाहिए कि पिछले सौ साल में लखनऊ ने एक भी महिला महापौर का चयन नहीं किया है। साधुवाद देना चाहिए योगी सरकार और राज्य निर्वाचन आयोग को, जो उसने महिला सशक्तिकरण पर अपनी सहमति जताई और लखनऊ में महिला महापौर के चयन की राह प्रशस्त की। 

इस बार लखनऊ महापौर की सीट महिला के लिए आरक्षित होने की वजह से सत्ताधारी भाजपा सहित विभिन्न दलों ने महिला प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं। जीते किसी भी दल का प्रत्याशी, इतिहास बनना तय है और पहली बार राजधानी लखनऊ को महिला मेयर मिलेगी। लखनऊ में महापौर भले ही कोई महिला नहीं रही हो लेकिन यहां से लोकसभा के लिए तीन बार महिलाएं जीतकर पहुंची हैं। लखनऊ से शीला कौल 1971, 1980 और 1984 में चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंची थीं। उत्तर प्रदेश म्यूनिसिपैलिटी कानून 1916 में वजूद में आया था। बैरिस्टर सैयद नबीउल्लाह पहले भारतीय थे, जो स्थानीय निकाय के मुखिया बने थे। यह अलग बात है कि आजादी के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने 1948 में पहली बार स्थानीय निकाय का चुनावी स्वरूप बदला और प्रशासक की अवधारणा शुरू की। इस पद पर भैरव दत्त सनवाल नियुक्त किए गए। 

संविधान में संशोधन कर 31 मई 1994 को लखनऊ के स्थानीय निकाय को नगर निगम का दर्जा दिया गया। 1959 के म्यूनिसिपैलिटी एक्ट में महापौर के निर्वाचन हेतु प्रावधान किए गए। रोटेशन के आधार पर महिला, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई। बसपा ने पूर्व अपर महाधिवक्ता बुलबुल गोदियाल को प्रत्याशी बनाया है। बसपा 17 साल बाद पहली बार पार्टी के चिह्न पर नगर निकाय चुनाव लड़ रही है। भाजपा की मेयर पद की प्रत्याशी संयुक्ता भाटिया का कहना है कि अब महिलाओं का समय आ गया है। जो लोग महिलाओं के लिए पिंक टाॅयलेट निर्माण के भाजपा के दावे पर सवाल उठा रहे हैं, उन लोगों को सोचना होगा कि जब 1959 के म्यूनिसिपैलिटी एक्ट में महापौर के निर्वाचन हेतु आरक्षण में रोटेशन की व्यवस्था थी तो महिलाओं के लिए महापौर की सीट आरक्षित करने में 58 साल कैसे लग गए? पारदर्शिता के दावे करना और बात है, शीशे की तरह पारदर्शी होना और बात है।

अंदरूनी सच तो यह है कि सभी राजनीतिक दल चाहते हैं कि शहरी निकाय चुनाव में भाजपा का खेल बिगड़ जाए क्योंकि ऐसा होने पर उन्हें 2019 के चुनाव में यह प्रचारित करने में मदद मिलेगी कि योगी और मोदी के काम को जनता ने नकार दिया है। सपा-बसपा, कांग्रेस को तो अपने कार्यकर्ताओं के विश्वास को थामे रहना है। उन्हें यह बताना है कि अभी पार्टी में दम है। उन्हें यह भी प्रचारित करना है कि देश और प्रदेश में मोदी और योगी की लहर खत्म हो गई है जबकि योगी आदित्यनाथ और उनके सहयोगी मंत्री, विधायक, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष इसलिए इस चुनाव में दिन-रात एक कर रहे हैं क्योंकि उन्हें पता है कि एक भी पार्षद और मेयर प्रत्याशी के हारने के बाद विपक्ष उन्हें जनता की परीक्षा में फेल करार देगा। विपक्ष निरंकुश होता है, उसकी जुबान पर ताला नहीं लगाया जा सकता। 

मेयर और पार्षदों का चुनाव योगी और महेंद्रनाथ पांडेय की अग्नि परीक्षा भी है। भले ही रामगोपाल यादव चुनाव प्रचाररत योगी आदित्यनाथ पर तंज कसें कि उनसे दमदार तो सपा के सामान्य कार्यकर्ता हैं लेकिन वे यह भूल गए हैं कि इस चुनाव में प्रचार न करके सपा और बसपा के बड़े पदाधिकारियों ने बड़ी भूल की है। कांग्रेस के राजबब्बर को लें तो वे अपने प्रत्याशियों के पक्ष में निरंतर प्रचार कर रहे हैं। हारना-जीतना तो चुनाव में लगा रहता है लेकिन इस बहाने वे जनता के सीधे संपर्क में हैं। योगी आदित्यनाथ भी इसी सोच के साथ आगे बढ़ रहे हैं। प्रथम चरण के चुनाव से उनका मनोबल बढ़ा है और दूसरे चरण के चुनाव में भी उन्होंने अपनी पूरी ताकत झोंक रखी थी। योगी ने जिस दिन मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी, उसी दिन उन्होंने अधिकतम विकास के लिए दो साल की अवधि तय कर ली थी। काम तो उन्हें पांच साल करने हैं लेकिन पहले दो साल उनके लिए बहुत मायने रखते हैं। 2019 का लोकसभा चुनाव जीतना उनका सबसे बड़ा अभीष्ठ है और यह सब समग्र विकास की बदौलत ही संभव हो सकेगा। महापौर और पार्षद के स्तर पर ही विकास होगा और विकास के पायदान से बहुत पीछे रह गए लोगों तक पहुंचेगा। यह सच है कि विकास ऊपर से नीचे की ओर जाता है लेकिन काम नीचे वाले ही करते हैं। इसलिए सबके साथ की जरूरत है। एक भी व्यक्ति की बेईमानी, मक्कारी, लापरवाही देश को विकास के पथ से विचलित कर सकती है। शहरी निकाय चुनाव को इसी रूप में देखा जाना चाहिए। 

(लेखक हिंदुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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