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संपादकीय
धर्म के मायालोक में अंधी आस्था के दुष्‍परिणाम : प्रमोद भार्गव
By Deshwani | Publish Date: 26/8/2017 3:28:51 PM
धर्म के मायालोक में अंधी आस्था के दुष्‍परिणाम : प्रमोद भार्गव

धर्म के मायालोक में अंधी आस्था के दुष्‍परिणाम क्या होते हैं, यह हमने पिछले साल मथुरा में बाबा रामपाल के डेरे में देखा और अब डेरा सच्चा सौदा के स्वयंभू ईश्‍वर बने बाबा गुरमीत राम-रहीम के भक्तों की पांच राज्यों में सामने आई हिंसा के कुरूप चेहरों के रूप में देख रहे हैं। बाबा ने पहले उत्तेजक माहौल बनाकर देश की न्याय व्यवस्था को यह चेतावनी देने की कोशिश की कि यदि निर्णय खिलाफ आया तो देश अराजकता के हवाले कर दिया जाएगा। भारत का नामोनिशं मिटा देंगे। वास्तव में बलात्कार में जब अदालत ने बाबा गुरमीत को दोषी करार दिया तो पांच मिनट के भीतर हरियाणा समेत दिल्ली, हिमाचल, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में अनेक जगहों से आगजनी व तोड़फोड़ की घटनाएं सामने आने लगीं। देखते-देखते करोड़ों की संपत्ति नष्ट कर दी गई और नियंत्रण के उपाय में पुलिस व सुरक्षाबलों की गोलीबारी में 30 लोग हताहत एवं 250 लोग घायल हो गए। यह वाक्या तब हुआ जब बाबा को एक साध्वी के साथ दुष्कर्म के आरोप में दोषी ठहराया गया है। 
कुछ समय पूर्व ही मुख्य न्यायमूर्ति जेएस खेहर ने कहा था ‘अब कानून तोड़ना और न्यायालय की अवमानना करना हमारी संस्कृति और खून में शामिल हो गया है।‘ तब उनके कहे को गंभीरता से नहीं लिया गया। इसीलिए जब तीन तलाक से जुड़ा फैसला आया तो अनेक मौलवियों और मुस्लिम समाज के बुद्धिजीवियों ने इसे धर्म में हस्तक्षेप बताया और अब डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख राम रहीम पर यौन शोषण का आरोप सिद्ध हुआ तो उनके सर्मथकों ने उत्तरी भारत में हिंसा का तांडव रचकर जता दिया है कि अदालती आदेश के उनके लिए कोई मायने नहीं हैं। हैरानी की बात यह है कि चंडीगढ़ प्रशासन और हरियाणा एवं पंजाब की सरकारों को पता था कि 24 अगस्त को यह फैसला आना है और उनके समर्थक तीन दिन पहले से ही पंचकूला में धारा 144 लगाए जाने के बाबजूद लाखों की संख्या में आना शुरू हो गए हैं, तब उनको नियंत्रित क्यों नहीं किया गया। बड़ी संख्या में पुलिस के अलावा अर्ध-सैनिक बलों 15 हजार जवान तैनात थे। थल सेना गश्त कर रही थी। बाबजूद बाबा के समर्थक लाठी, हथियार और पेट्रोल व डीजल लेकर संवेदनशील क्षेत्रों में घुसे चले आए। खुफिया एजेंसियां को भी इनकी मंशा की भनक तक नहीं लग पाई। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि एजेंसियों के अधिकारी-कर्मचारियों ने क्षेत्र में जाकर न तो समर्थकों से बातचीत की और न ही उनकी खाना-तलाशी ली। इसलिए यह खुफिया एजेंसियों की बड़ी चूक है, इसलिए उन्हें भी इस हिंसा के लिए दोषी ठहराए जाने की जरूरत है। इन सब लापरवाहियों की वजह से ही शासन-प्रशासन असहाय नजर आया। 
राम रहीम को दोषी ठहराने के लिए दो पीड़ित साध्वियों ने 15 साल कानूनी लड़ाई लड़ी। इनमें से एक नाबालिग लड़की थी। 2002 में बाबा के खिलाफ उनकी शिकायत पर दुष्कर्म व यौन उत्पीड़न का प्रकरण दर्ज किया गया था। 15 साल बाद फैसला 25 अगस्त 2017 को विशेष सीबीआई जज जगदीप सिंह ने सुनाया। फैसले के वक्त अदालत में पीड़ित साध्वियां, आरोपी राम रहीम के साथ हरियाणा के मुख्य सचिव भी मौजूद थे। वहीं अदालत के बाहर तथाकथित बाबा के लाखों समर्थक भी मौजूद थे। साध्वियों के बयानों और परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर इल्जाम सही साबित हुआ। बाबजूद समर्थकों ने पीड़ित साध्वियों का पक्ष लेने की बजाए उस बाबा का साथ दिया, जिसने बाबा का रूप रखकर जघन्य अपराध किया था। भारत में यह बेहद दुखद एवं विरोधाभासी स्थिति है कि भक्तगण धर्म के मायालोक में इतने अंधविश्वासी हो जाते हैं कि वे अपना सही-गलत का विवेक तो खोते ही हैं, कानून भी अपने हाथ में लेकर, अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारने का काम कर देते हैं। यह अंधी आस्था हम सबके लिए गहरे आत्म निरीक्षण का विषय है कि आखिर राम रहीम जैसे वैभवशाली व विलासी लोग भोली-भाली जनता के समक्ष दैवीय शक्ति का रूप व प्रतीक बन जाते हैं। राम रहीम जैसे बाबाओं को महिमामंडित करने का काम हमारे राजनेता और आला अधिकारी भी उनकी शरण में जाकर करते हैं। इस कारण आम जनता का मानस इन्हें चमत्कारी मानने का भ्रम पाल लेती है। नतीजतन इनके सम्मोहन में आकर लोग अंधेपन का शिकार होकर अपने जीवन को पंगु बना देने का काम कर डालते हैं। 
यही काम टीवी समाचार चैनलों पर ‘थर्ड आई आफ निर्मल बाबा’ भक्तों पर दिव्य कृपा बरसाते हुए कर रहे हैं। एक समय बाबा मुश्किल में भी आ गए थे, लेकिन अब उनका कारोबार फिर टीवी चैनलों पर स्पेस खरीद कर फिर से धड़ल्ले से चल निकला है। हालांकि दैवीय शक्तियों और चार भुजाओं से भक्तों के कल्याण का प्रपंच रचने वाले अकेले राम रहीम और निर्मल बाबा ही नहीं हैं, टीवी चैनलों पर मंत्र-महामंत्र और चमत्कारिक वस्तुएं एवं टोटके बेचने वाले तथाकथित सिद्धियों बनाम कारोबारियों की पूरी एक जमात है। हैरानी इस बात पर भी है कि छल, प्रपंच और प्रहसन के इस पूरे कारोबार को प्रोत्साहित और संरक्षण भुगतान समाचार (पेड न्यूज) के बूते वे टीवी चैनल दे रहे हैं, जिनकी पैठ घर-घर में है और जिनके मालिक व उद्घोषक प्रगतिशील होने का दावा करते हैं। 
धर्म और धर्म के प्रर्वतक मानवता को तात्कालिक व समकालीन संकटों से मुक्ति के लिए अस्तित्व में आए और उन्होंने समाज को संकट में डालने वाली शक्तियों से जबरदस्त लोहा भी लिया। इस क्रम में भगवान बुद्ध ने ईश्वर के नाम पर संचालित धर्म सत्ता को राजसत्ता से अलग किया। उस युग में धर्म आधारित नियम-कानून ही राजा के राजकाज के प्रमुख आधार थे। किंतु बुद्ध ने जातीय, वर्ण और धर्म की जड़ता को खण्डित कर समतामूलक नागरिक संहिता को मूर्त रूप दिया। कौटिल्य के अर्थ शास्त्र में भी जन्म आधारित और जातिगत श्रेष्ठता की जगह व्यक्ति की योग्यता को महत्व दिया गया। इस्लामी परंपरा में भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को उसकी रजामंदी के अधीन माना गया। ईसा मसीह ने व्यक्ति स्वातंत्र्य और करुणा के अधीन न्याय का सूत्र दिया। गुरूनानक ने जातिवाद की ऊंच-नीच को अस्वीकार कर सत्तागत राजनीतिक धर्मांधता को मानव विरोधी जताया। परंतु कालांतर में धर्मांध लोगों ने अपनी-अपनी प्रभुताओं की वर्चस्व स्थापनाओं के दृष्टिगत कालजयी पुरुषों के संघर्ष को दैवीय व अलौकिक शक्तियों के सुपुर्द कर धर्म को अंधविश्वास और उससे उपजाए गए भय और कृपा के सुपुर्द कर दिया। बोध प्राप्ति के इस सरल मार्ग को शक्ति के मनोविकार, प्रसिद्धि की लालसा, धन की लोलुपता और वैभव के आडंबर में बदल दिया। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तो धर्म अभिव्यक्तियों के बहाने अंधविश्वास फैलाने के रास्तों पर ही आरूढ़ होता दिखाई देता है। यही कारण है कि वैचारिक शून्यता के माहौल में हर नये विचार के आगमन और प्रयोग की कोशिशों को कल्पनातीत लीलाओं की तरह महिमामंडित कर जड़ता का मनोविज्ञान रचा जाकर मानवीय सरोकारों को हाशिये पर लाया जा रहा है। मानवीय सरोकारों के लिए जीवन अर्पित कर देने वाले व्यक्तित्व की तुलना में अलौकिक चमत्कारों को संत शिरोमणि के रूप में महिमामंडित करना किसी एक व्यक्ति को नहीं पूरे समाज को दुर्बल बनाने की कोशिशें हैं। 
चमत्कार यथार्थ नहीं होते इसके प्रमाण भारतीय इतिहास में भरे पड़े हैं। जब यवन आक्रांता महमूद गजनवी ने सशस्त्र लुटेरों के साथ सोमनाथ के विश्व प्रसिद्ध शिव-मंदिर पर हमला बोला तो मंदिर के पुजारियों ने सोमनाथ के सैन्य बलों को भरोसा जताया कि भोले शंकर तीसरा नेत्र खोलेंगे और आक्रांता शिव की क्रोधाग्नि से भस्म हो जाएंगे, लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसा हुआ नहीं। आक्रमणकारियों ने पवित्र शिवलिंग तो खंडित किया ही मंदिर की अकूत व बहूमूल्य धन संपदा लूट कर भी ले गए। सिंध में यही हाल मोहम्मद बिन कासिम ने किया। तुर्क शासकों का भारत पर साढ़े तीन सौ साल का शासन तो बेहद भयावह और दमनकारी रहा। तैमूर ने मोहम्मद तुगलक से युद्ध करने से पहले एक दिन में ही एक लाख हिन्दू-बंदियों का बेरहमी से कत्ल कर दिया था। मानव-जीवन को ह्रास करने वाला इतना नृशंसतापूर्ण उदाहरण दूसरा नहीं है। ब्रिटिश काल में भी नहीं। यही, भारत में वह परवर्ती युग था जब तुर्कों द्वारा सुन्दर हिन्दू लड़कियों को जबरन पत्नियां बनाये जाने के कारण पर्दा-प्रथा व बाल विवाह का प्रचलन शुरु हुआ। यही वह समय था जब हिन्दुओं में एकेश्वरवाद में विश्वास और मूर्ति पूजा में आस्था चरम पर थी। फलित ज्योतिष, सामुद्रिक हस्तशास्त्र और जादू-टोना के मोहपाश में भी मानव समुदाय उलझे थे। यही वे प्रच्छन्न कारण थे, जिनसे हिंदू समाज इतना निष्क्रिय और नाकारा हो गया था कि वह अपनी सुरक्षा भी नहीं कर पाया।
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