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सीमा विवाद: ब्रिक्स देश क्यों नहीं लताड़ते चीन को? : आर.के.सिन्हा
By Deshwani | Publish Date: 25/8/2017 3:32:27 PM
सीमा विवाद: ब्रिक्स देश क्यों नहीं लताड़ते चीन को? : आर.के.सिन्हा

अभी भारत-चीन सीमा पर अमन की बहाली एक दूर की संभावना दिख रही है। वैसे तो, धूर्त चीन आसानी से सुधरने वाला नहीं है। उसने अब लद्दाख में भी घुसपैठ की चेष्टा की, जिसे भारतीय फौज के वीर जवानों ने आसानी से विफल कर दिया। अब बताया जा रहा है कि चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी(पीएलए) पूर्वी अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड से लगने वाली भारत-चीन सीमा पर भी घुसपैठ की कोशिश कर सकती है। यानी चीन चैन से बैठने के मूड में नहीं दिखता। चीन को भी अब अच्छी तरह से समझ आ गया है कि इस बार उसकी टक्कर 1962 वाले कमजोर भारत से नहीं है। अबकी बार भारत की मजबूत सेना उसके दांत खट्टे करके खदेड़ देने में सक्षम है।

कम हो आयात

चीन में एक मशहूर कहावत है कि पड़ोसी कभी प्रेम से नहीं रह सकते। अब तो इस बात को भारत को भी समझ ही लेना चाहिए। अब भारत को चीन को उसकी औकात कायदे से बता ही देनी चाहिए। चीन आज के दिन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार भी है। वैसे उसके साथ भारत का 29 अरब डॉलर का विशाल व्यापार घटा भी है। अब इस व्यापार घाटे को संतुलित करने की जरूरत आ गई है। भारत जिस भी चीज का निर्यात कर सकता है, उसको उसे अपने लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद जगह पर अच्छी से अच्छी कीमत लेकर ही बेचना चाहिए। साथ ही भारत को अपनी जरूरत की चीजें भी ऐसे ही देशों से मंगानी चाहिए, जहां वे कम से कम कीमत पर उपलब्ध हों। तात्पर्य यह है कि भारत को अपेक्षाकृत कम होड़ वाले देशों से व्यापार संबंध बनाकर मुनाफे की स्थिति में ही करना चाहिए, जबकि, अधिक होड़ वाले देशों के साथ व्यापार घाटे को कम करना चाहिए। भारत को कतई बिजली के सजावटी सामानों से लेकर कपड़ों और मूर्तियों वगैरह का चीन से आयात तो कम करना ही होगा।

भारत सरकार भी भारतीय बाजार में गैर जरूरी चीनी सामानों की बढ़ती खपत को लेकर गंभीर है। द्विपक्षीय व्यापार नियमों से हटकर घरेलू उत्पादों की बिक्री को प्रभावित करने वाली वस्तुओं का आयात रोकने के कदम भी सरकार ने उठाने शुरू कर दिए हैं। कुछ समय पहले ही सरकार ने एक अधिसूचना जारी करके विदेशी पटाखों की बाजार में बिक्री को अवैध करार कर दिया था। भारतीय बाजार में चीनी उत्पादों की बढ़ती घुसपैठ को लेकर अब देशभर में कई मंचों से आवाज उठायी जा रही है। इसके साथ ही चीन की ओर से स्टील, केमिकल उत्पादों की डंपिंग को लेकर भी चिंता जताई जा रही है।

दे पटकनी

ताजा स्थिति यह है कि दोनों देशों के बीच करीब 70 अरब डॉलर से अधिक का द्विपक्षीय व्यापार होता है। इसमें चीन से भारत में आयात की हिस्सेदारी करीब 61 अरब डॉलर की है। इसके विपरीत भारत से चीन को निर्यात महज नौ अरब डॉलर का है। यह बड़ा भारी असंतुलन है। यानी चीन से भारत में होने वाला आयात, भारत से चीन को होने वाले निर्यात के मुकाबले छह गुना से अधिक है। यह भारत में होने वाले कुल आयात का मात्र 15 फीसद है। अब सरकार को इस मोर्चे पर भी चीन को पटकनी देनी ही होगी। चीन से होने वाले आयात में कमी करने के उपाय भी तलाश करने होंगे, ताकि उसे आर्थिक चोट पहुंचे। यदि एक बार चीन से आयात घटना चालू हुआ, तो वहां पर अपने-आप हड़कंप मच जाएगा। तभी चीनी नेतृत्व की आंखें भी खुलेगी कि मित्र देशों से मित्र धर्म का निर्वाह किस तरह करना चाहिए। भारत-चीन व्यापार के स्वरूप को लेकर भी चिंताएं काफी वक्त से व्यक्त की जा रही हैं। भारत मुख्य रूप से लौह अयस्क और कुछ अन्य खनिजों का निर्यात करता है, जबकि चीन से वह बनी-बनाई चीजें, खासकर तरह-तरह की मशीनरी, टेलिकॉम उपकरण और बिजली के सामान और खिलौने, इलेक्ट्रिकल मशीनरी व उपकरण, मैकेनिकल मशीनरी व उपकरण, प्रोजेक्ट गुड्स, आर्गेनिक केमिकल और लौह व इस्पात आदि प्रमुख चीजें मंगाता है। पिछले कुछ साल से बिजली व दूरसंचार उपकरणों के आयात में काफी तेजी आई है।

लगेगी चोट

इसमें कोई शक नहीं है कि चीन के ताजा रुख से दोनों देशों के बीच आपसी व्यापार को और गति देने की संभावनाओं को गहरी चोट पहुंची है। 1962 के युद्ध की कड़वी यादें अब भी भारतीय जनमानस के जेहन में लगभग भूल सी गई थीं, जबकि चीन ने एक बार फिर भारत से पंगा लेना शुरू कर दिया है। कुछ समय पहले तक तो यही लग रहा था कि भारत और चीन ने एक सार्वभौम पड़ोसी राष्ट्रों के रूप में द्विपक्षीय रिश्ते में एक लम्बी दूरी तय कर ली हैं। लेकिन, उस सोच को गहरा धक्का लगा है। दोनों देश ढाँचागत विकास, पर्यटन, सूचना प्रोद्योगिकी और कृषि के क्षेत्र में आपसी सह्योग से आगे बढ़कर दोनों देशों का विकास कर सकते थे। चीनी कंपनियां भी भारत में निवेश को लेकर खासा सकारात्मक रुख ही अपना रही थी। अब लगता है कि चीनी नेतृत्व को अपने देश की निजी कंपनियों के हितों की कोई परवाह ही नहीं है। वैसे तो कहते हैं कि सभी बड़ी चीनी कंपनियों में चीन की शासक कम्युनिस्ट पार्टी की अच्छी-खासी हिस्सेदारी भी रहती है। साल 2014 में जब चीन के राष्ट्रपति भारत आए थे, तो उनके साथ उनके देश की करीब 80 शिखर कंपनियों के उच्चाधिकारी भी आए थे। उनमें विमानन से लेकर मत्स्यपालन क्षेत्र तक की कंपनियों के सीईओ थे। चीनी नेता की टोली में एयर चाइना, जेडटीई, हुआवेई टेक्नोलॉजी, शांघाई इलेक्ट्रिक कॉरपोरेशन, चाइना डेवलपमेंट बैंक आदि के प्रतिनिधि शामिल थे। यानी चीन का प्राइवेट सेक्टर व्यापारिक संबधों को गति देकर भारत से संबंध सुधारना चाहता है। फिर भी वहां की सरकार विस्तारवादी नीति पर ही चलती नजर आ रही है। प्रश्न यह है कि क्या चीन सरकार अपनी ही कंपनियों के हितों के विरुद्ध कोई ऐसा कार्य कर सकती है जिससे उनकी ही कंपनियों द्वारा भारत में सैकड़ों अरब के निवेश का बंटाधार हो जाये ।

छोड़ें ब्रिक्स ?

दरअसल, भारत-चीन सीमा पर जो कुछ हो रहा है, उस पृष्ठभूमि में ब्रिक्स को भी बहस में लाना अति आवश्यक है। ब्रिक्स पांच प्रमुख उभरती अर्थव्यवस्थाओं का समूह है। इसमें भारत और चीन दोनों ही हैं। इनके अलावा ब्राजील, रूस और दक्षिण अफ्रीका भी हैं। माना जाता हैं कि ब्रिक्स देशों में विश्वभर की 43 फीसद आबादी रहती है, जहां विश्व का सकल घरेलू उत्पाद 30 फीसद है और विश्व व्यापार में इसकी 17 फीसद हिस्सेदारी भी है। ब्रिक्स देश के सदस्य वित्त, व्यापार, स्वास्थ्य, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, शिक्षा, कृषि, संचार, श्रम आदि मसलों पर परस्पर सहयोग का संकल्प रख मिलजुल कर कार्य करने का वादा करते हैं। यहां तक तो सब ठीक है। अब जबकि ब्रिक्स देशों का एक सदस्य कतई गुंडागर्दी के अंदाज में अपने ही साथी ब्रिक्स समूह के देश (भारत) को ललकार रहा है, तो बाकी ब्रिक्स राष्ट्र चुप्पी क्यों साध गए हैं? ब्राजील,रूस और दक्षिण अफ्रीका खुलकर क्यों नहीं चीन की दादागिरी पर बोलते? क्यों उन्हें चीन से डर लग रहा है? ये देश चीन को ब्रिक्स देशों के समूह से बाहर करने की कार्रवाई क्यों नहीं करते? क्या चीनी सीमा पर भारत कोई घुसपैठ कर रहा है? सबको मालूम है कि वस्तुस्थिति क्या है? इसके बावजूद ब्रिक्स देश के सदस्य जुबान खोलने को तैयार नहीं हैं। तो फिर इस तरह के समूह का सदस्य बनने का लाभ ही क्या है? इस तरह के कथित मित्रों से संबंध बनाए रखने से आख़िरकार क्या मिलेगा? भारत को भी अब इस संबंध में गंभीरता से विचार करना ही होगा।

रूस, भारत तथा चीन ने सेंट पीटर्सबर्ग में जुलाई 2006 में जी-8 शिखर सम्मेलन के अवसर पर ब्रिक्स को प्रारम्भ किया था। न्यूयॉर्क में सितम्बर 2006 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के अवसर पर ब्रिक समूह के विदेश मंत्रियों की प्रथम बैठक के दौरान ब्रिक को औपचारिक रूप प्रदान किया गया। ‘ब्रिक’ के प्रथम शिखर सम्मेलन का आयोजन रूस के येकातेरिनबर्ग शहर में 16 जून, 2009 को किया गया। सितम्बर 2010 में न्यूयॉर्क में ब्रिक विदेश मंत्रियों की बैठक में दक्षिण अफ्रीका को शामिल कर ब्रिक्स में विस्तार करने पर सहमति बनी थी। लेकिन, अब लगा रहा है कि ब्रिक्स को भी अपनी भूमिका पर फिर से विचार करना होगा। सिर्फ वार्षिक सम्मेलन में राष्ट्राध्यक्षों के मिलने का क्या लाभ है? उसमें कुछ भारी-भरकम घोषणाएं ही तो होती हैं। इसी तरह से हम दलाई लामा की चुप्पी को भी देख ही रहे हैं। चीन का जब से डोकलाम के सवाल पर आक्रमक रुख शुरू हुआ तो एक उम्मीद जरूर थी कि दलाई लामा से लेकर भारत में रहने वाले बड़ी संख्या में तिब्बती उसके (चीन) खिलाफ सामने आएँगे। लेकिन सब के सब चुप हैं। न दलाई लामा बोल रहे हैं, न ही बात-बात पर चीनी दूतावास के बाहर प्रदर्शन करने वाले तिब्बती समुदाय के लोग ही खुलकर भारत के पक्ष में खड़े हो रहे हैं। भारत ने दलाई लामा को उनके हजारों अनुयायियों के साथ भारत के विभिन्न पहाड़ी इलाकों में शरण देकर एक तरह से चीन से स्थायी पंगा ले लिया था। दलाई लामा को शांति का नोबेल सम्मान भी मिला था। उन्हें सारी दुनिया सम्मान की नजरों से देखती है। बेहतर होता कि वे इस मौके पर तो अवश्य ही चीन की विस्तारवादी नीतियों को दुनिया के सामने लेकर आते और खुलकर भारत के पक्ष में खड़े होते। पर वे तो चुप हैं। मानो वे अज्ञात स्थान में चले गए हों। उनका इस मौके पर चुप रहना या तटस्थ रवैया रखना समझ से परे है।

अब भारत के सामने दो ही रास्ते बचे हैं। पहला, कि उसे सोचना ही होगा कि क्या उसे ब्रिक्स समूह में बने रहना चाहिए? दूसरा, उसे चीन से अपना आयात घटाना ही होगा। हम निर्यात का पांच गुना आयत करें यह तो किसी भी तरह से युक्तिसंगत नहीं है। तब चीन अपने-आप सीधा हो जाएगा।

(लेखक राज्यसभा सदस्य एवं बहुभाषी संवाद समिति हिन्दुस्थान समाचार के सदस्य हैं)

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