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संपादकीय
‘बहुमत’ का निर्णय ‘नैतिक’ रूप से कितना ‘बलशाही’? : राजीव खण्डेलवाल
By Deshwani | Publish Date: 24/8/2017 4:55:00 PM
‘बहुमत’ का निर्णय ‘नैतिक’ रूप से कितना ‘बलशाही’? : राजीव खण्डेलवाल

एक साथ ‘‘तीन तलाक’’ के संदर्भ में उच्चतम् न्यायालय ने दो के विरूद्ध तीन के बहुमत से ऐतहासिक फैसला देकर लम्बे समय से चली आ रही बहस को विराम देते हुए ‘त्वरित तीन तलाक’ को असंवैधानिक करार देने के साथ साथ तुरन्त ही एक अन्य बहस का भी अवसर प्रदान कर दिया है। वह इसलिए कि ऐसे महत्वपूर्ण संवेदनशील मुद्दे पर तीन- दो के बहुमत का निर्णय संविधान के तहत तो बंधनकारी है, जिसने मुद्दे को अंतिम रूप से निर्णित कर दिया है (सिवाय पुनरावलोकन की स्थिति को छोड़कर)। लेकिन न्यायिक प्रक्रिया में नैतिक बल के आधार पर क्या यह निर्णय उतना ही प्रभावी माना जायेगा? यह निर्णय ऐसा प्रश्न पैदा करने का एक अवसर आलोचको को देता है। उच्चतम् न्यायालय ने स्वयं संज्ञान लेकर उक्त मामले की सुनवाई प्रारंभ कर मुस्लिम महिलाओं के बराबरी (समानता) के जीने के संवैधानिक अधिकार पर ‘‘तीन तलाक’’ द्वारा जो अतिक्रमण किया जा रहा था, उस बाधा को समाप्त कर, मुस्लिम महिलाओं का एक बड़ी राहत प्रदान की हैं। उनके असहय जीवन में तनाव को समाप्त कर उनमें नव जीवन का संचार किया है। इस ऐतहासिक निर्णय ने एक ओर सिविल संहिता के संबंध में कानून बनाने का रास्ता भी साफ कर दिया है। वैसे जब आपराधिक न्यायशास्त्र, मुस्लिम सहित समस्त भारतीयों पर लागू है, तब सिविल सहिंता के मामले में मुस्लिम समाज अलग क्यों रखा जाना चाहिए?
लोकतांत्रिक देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया निश्चित रूप से बहुमत के आधार पर संचारित होती है। वह बहुमत भी पूर्ण बहुमत न होकर उस प्रक्रिया में भाग लेने वाले व्यक्तियों के बीच का ही होता है। अर्थात् ऐसी प्रक्रिया में भाग लेने के लिये अधिकृत रूप से भागीदार होने वाले समस्त पात्र व्‍यक्तियों की संख्या का बहुमत गिनने की व्यवस्था हमारी वर्तमान लोकतांत्रिक प्रक्रिया में नहीं हैं। मतलब साफ है कि कुल मतों का 50 प्रतिशत से अधिक की संख्या के मत से निर्णय को ही बहुमत मानने की व्यवस्था हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में नहीं है। उच्चतम न्यायालय के ऐसे कुछ, बहुत ही संवेदनशील प्रकरणों में भी यही प्रक्रिया का लागू होना क्या एक श्रेष्ठ न्यायिक प्रक्रिया,प्रणाली मानी जानी चाहिए? 
कानूनी रूप से संवैधानिक एवं बंधनकारी इस कानूनी व्याख्या को छोड़कर निम्न तीन बिन्दु इस निर्णय को अन्यथा व नैतिक रूप से कमजोर बनाते हैं- एक, ऐसा निर्णय जो समाज विशेष या धर्म विशेष अर्थात् अल्पसंख्यक मुसलमानों के इस्लाम धर्म के व्यक्तिगत कानून (पर्सनल लॉ) को अक्षुण्ण मानते हुए मात्र आधे अंक से ज्यादा वाले बहुमत के निर्णय के कारण दिया गया है। वह नैतिकता के बल के साथ उक्त विवाद को तार्किक रूप से पूर्ण स्पष्टता के साथ अंतिम रूप से निर्णीत कैसे कर पायेगा। आप को मालूम ही है, संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में कोई भी निर्णय सर्व सम्मति से ही लागू होता हैं। पांच सदस्यों में से किसी भी एक सदस्य के वीटो के कारण बहुमत के निर्णय को भी लागू नहीं किया जा सकता है। क्या ऐसे ही निर्णय की परिस्थिति इस प्रकार के अल्प लेकिन अतिसंवेदनशील विषयों में उच्चतम् न्यायालय की निर्णय प्रणाली पर लागू नहीं की जाना चाहिए? दूसरा उच्चतम् न्यायालय के उक्त निर्णय में जब स्वयं न्यायालय ने यह ध्यान रखा कि उक्त मुद्दे की सुनवाई पांच विभिन्न धर्मो के न्यायमूर्तियॉं (जिसमें कोई महिला जज शामिल नहीं थी) करें ताकि किसी भी प्रकार की अल्प शंका का भी वातावरण न बन सके। इन बरती गई सावधानियों के बावजूद मुस्लिम धर्मावलम्बी न्यायमूर्ति ने मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (पर्सनल लॉ) से संबंधित प्रकरण में, ही बहुमत के निर्णय से अपने को अलग रखा, तब क्या यह स्थिति इस निर्णय को कमजोर नहीं कर देती है? तीसरा मुख्य न्यायाधीश जो इस बेंच के भी प्रमुख थे, ने भी अपने को बहुमत के निर्णय से अलग रखा है। यह भी पहली बार देखने को मिला व क्या उचित है कि किसी विशेष धर्म पर्सनल लॉ से जुड़े मामले में उच्चतम् न्यायालय ने (धर्म के आधार पर) विभिन्न धर्मावलम्बियों के न्यायमूर्तियों की बेंच बनाई। पूर्व में शाहबानो प्रकरण में भी मुस्लिम महिला के गुजारे के अधिकार का मामला था। तब भी ऐसा नहीं हुआ था, जहॉ समस्त न्यायमूर्तियों जो विभिन्न धर्मो के नहीं थे बल्कि मुस्लिम धर्म के कोई भी न्यायमूर्ति नहीं थे, तब सर्वसम्मति से शाहबानो के पक्ष में निर्णय दिया गया था। हालांकि बाद में संसद ने कानून बनाकर निष्प्रभावी कर दिया था। 
न्याय का मूल सिद्धांत यह भी है कि न केवल न्याय मिलना चाहिए बल्कि न्याय मिलता हुआ दिखना भी चाहिए। अर्थात परसेप्शन (अनुभूति) का ‘‘न्याय सेंस’’ में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है, जिसका वर्त्तमान निर्णय में अभाव सा महसूस होता है। उपरोक्त सब कारणों से यहॉं यह प्रश्न पैदा होता है कि नैतिकता के धरातल पर भी यह निर्णय क्या उतना ही बलशाही माना जायेगा, जितना कानूनी आधार पर? ऐसी स्थिति के कारण यह निर्णय मुस्लिम समाज के एक वर्ग को क्या यह अवसर प्रदान नहीं कर देता है कि आगे किसी बड़ी बेंच में मामला रेफर किया जाय, जहॉं कम से कम दो तिहाई बहुमत से स्पष्ट निर्णय हो। जब हमारे संविधान में संसद में सामान्य बहुमत न होने पर सरकार गिर जाती है लेकिन वही सामान्य बहुमत वाली सरकार जब कोई संविधान संशोधन बिल लाती है तो उसे दो तिहाई बहुमत से पारित करना होता है। ठीक इसी प्रकार की दो तरह के बहुमत की व्यवस्था न्यायपालिका की उपरोक्त स्थिति को देखते हुये क्यों नहीं होनी चाहिए? तभी इस संवेदनशील मुद्दे के निर्णय पर से धुंध की छाया हटकर यथार्थ स्थिति स्पष्ट हो सकेगी और एक स्पष्ट निर्णय पूरे मुस्लिम कौम को कानून के साथ-साथ पूरे नैतिक बल के साथ मानने के लिए बाध्य होना पडे़गा। उच्चतम् न्यायालय की सात सदस्यी बेंच का अभी आया निजता का अधिकार के मामले में आम सहमति का निर्णय उक्त मत की पुष्टि ही करता है।
इस निर्णय के बाद मुख्य न्यायाधीश ने सिंगल बेंच के रूप में अभी तक जो निर्णय दिये हैं, वे कितने सही होगें यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ सकता है, क्योंकि जब उनके विचार (ओपिनियन) को अन्य तीन न्यायमूर्तियों ने उक्त एक मामले में स्वीकार नहीं किया है, तो उनके निर्णय की पूर्णता पर प्रश्न उठना स्वाभाविक ही होगा।
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