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संपादकीय
भारत में नहीं तो कहां सुरक्षित हैं मुसलमानःसियाराम पांडेय ‘शांत’
By Deshwani | Publish Date: 12/8/2017 3:34:28 PM
भारत में नहीं तो कहां सुरक्षित हैं मुसलमानःसियाराम पांडेय ‘शांत’

निवर्तमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने जाते-जाते बहुत पते की बात कही है। लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा बहुत जरूरी है। हालांकि यह बात वे खुद भी कह सकते थे। इसके लिए किसी कंधे और सहारे की जरूरत नहीं थी। उन्होंने सर्वपल्ली राधाकृष्णन के हवाले से यह बात कही। उनका यह कहना कि हमारा पद क्रिकेट के अंपायर या हॉकी के रेफरी की तरह है, जो बिना खेले केवल खेल देखता है। देखना बड़ा काम है। उन्हें यह तो पता होना चाहिए कि जो देखता है, वही कार्रवाई करने का भी अधिकारी होता है। खिलाड़ी को खेल से बाहर करने का अधिकार भी अंपायर और रेफरी के पास होता है। क्या हामिद अंसारी ने अपने दूसरे दायित्व को निभाया? उन्हें देश को बताना चाहिए कि वे नाम के अंपायर थे या काम के भी। राज्य सभा की कार्यवाही के संचालन क्रम में तो उनका यह पक्ष कभी सामने नहीं आया।

राज्यसभा टीवी को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने कहा है कि बीफ पर प्रतिबंध लगाना पक्षपाती रवैया है। वे सहिष्णुता को अच्छी खूबी तो बताते हैं लेकिन उसे नाकाफी भी करार देते हैं। वे सहिष्णुता से आगे बढ़ते हुए स्वीकार्यता की राह पर बढ़ने की सलाह देते हैं। स्वीकार्यता निःसंदेह अच्छी बात है लेकिन उन्हें यह भी तो बताना चाहिए कि क्या आतंकियों को समर्थन देना, उनके समर्थन में पत्थरबाजी को भी स्वीकार कर लिया जाना चाहिए? जाते-जाते उन्होंने विपक्ष की भी तरफदारी की। यह भी कह दिया कि लोकतंत्र में उस वक्त अन्याय होता है, जब विपक्ष को मुक्त रूप से सरकार की नीतियों की आलोचना नहीं करने दिया जाता। लेकिन यह भी सही है कि विपक्ष को भी अपनी जिम्मेदारियों के बारे में पता होना चाहिए। सवाल उठता है कि क्या भारतीय लोकतंत्र में वाकई मुस्लिम समाज सुरक्षित नहीं है और अगर ऐसा है तो उपराष्ट्रपति जैसे जिम्मेदार पद पर रहे शख्स ने इस तरह की बात पहले क्यों नहीं कही। इसके पीछे उनका मंतव्य क्या है? अल्पसंख्यक समुदाय पर हामिद अंसारी के विचारों से देश में एक नई बहस जरूर छिड़ गई है। असदुद्दीन ओवैसी ने जहां इसे वास्तविकता का आईना करार दिया है, वहीं भाजपा ने इसे पूरी तरह राजनीतिक बयान करार दिया है। वाकई कोई छटपटाहट थी तो अपने कार्यकाल की समाप्ति के पहले ही उन्हें इस तरह का बयान देना चाहिए था। उप-राष्ट्रपति पद का चुनाव जीत चुके वेंकैया नायडू ने तो यहां तक कह दिया है कि भारत धर्मनिरपेक्षता का सबसे अच्छा उदाहरण है। अब सवाल उठता है कि इन दोनों विचारधाराओं में कौन कितना सही है?

कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद की हामिद अंसारी के बयान पर चाहे जो भी राय हो लेकिन एक गैर सरकारी संगठन नेशनल ट्राई कलर एसोसिएशन ऑफ इंडिया द्वारा ‘रोल ऑफ यूथ इन स्ट्रेंथिंग डेमोक्रेसी’ विषय पर आयोजित परिसंवाद में वे पहले ही इस बात का दावा कर चुके हैं कि भारत के मुसलमानों को पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे इस्लामिक देशों में बहुसंख्यक आबादी के सदस्यों द्वारा हिंदू समुदाय पर हिंसा की घटनाओं के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए। वैसे भी भारत में हिंदुओं की ओर से धर्मनिरपेक्षता दर्शाने में कभी कोई कमी नहीं रही है, लेकिन जब भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं के साथ हिंसा होती है तो हम (मुस्लिम) इन मुद्दों को क्यों नहीं उठाते हैं? इन सवालों का जवाब देश के अल्पसंख्यकों के पास नहीं है। एक भी मुस्लिम के साथ अन्याय होता है तो अधिकांश हिंदू इसके विरोध में सड़क पर उतर जाते हैं लेकिन जब किसी हिंदू पर मुसलमानों के स्तर पर ज्यादती होती है तो क्या एक भी मुसलमान इसके विरोध में आवाज उठाता है? एक ही तरह की घटनाओं में इस तरह का विरोधाभास आखिर क्यों? इसकी तह में अंततः कौन जाएगा?

हामिद अंसारी भारतीय अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन रहे। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में वाइस चांसलर रह चुके हैं। इससे भी बड़ी बात दो बार भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के उपराष्ट्रपति रह चुके हैं। क्या यह भारतीय लोकतंत्र में मुस्लिम समाज की उपेक्षा का उदाहरण है। उन्हें पाकिस्तान और अरब देशों में मुस्लिमों की हालत पर भी गौर फरमाना चाहिए। पाकिस्तान में गुस्साई भीड़ अक्सर अहमदी लोगों की मस्जिदों पर हमला कर देती है। मस्जिदों पर हमले वहां आम हैं। सिया-सुन्नी के झगड़े में कितने कत्लेआम होते हैं, कितनी मस्जिदों पर हमले होते हैं और इन हमलों में बहुतेरे निर्दोष लोग मारे जाते हैं। क्या भारत में भी वैसा ही कुछ होता है। मतभेद में परस्पर मारपीट की इक्का-दुक्का घटनाओं को असहिष्णुता तो नहीं कहा जा सकता। अहमदी लोगों को सिर्फ पाकिस्तान में नहीं, बल्कि कई और देशों में भी सताया जाता है। बांग्लादेश में भी उनके साथ ऐसा सलूक होता है जबकि दक्षिण पूर्व एशिया और खास कर इंडोनेशिया में भी हालात ऐसे ही हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले देश इंडोनेशिया में ज्यादातर सुन्नी मुसलमान ही हैं जबकि शियाओं की आबादी लगभग एक लाख है। अहमदी लोगों की तादाद चार लाख के आसपास है जिन्हें 2008 में इंडोनेशिया की सबसे बड़ी इस्लामी संस्था पथभ्रष्ट करार दे चुकी है। क्या किसी भी समुदाय को पथभ्रष्ट कहना उसका व्यक्तिगत और सामाजिक अपमान नहीं है? क्या यह अहमदियों के मौलिक अधिकारों का हनन नहीं है? उपराष्ट्रपति पद पर रहते हुए हामिद अंसारी ने कितनी बार इस तरह की घटनाओं की निंदा और आलोचना की? विभिन्न सर्वेक्षणों की मानें तो इंडोनेशिया में 40 फीसदी लोग नहीं चाहते कि उनके पड़ोस में कोई शिया या फिर अहमदी व्यक्ति रहे। वहीं 15.1 प्रतिशत लोगों का कहना है कि उन्हें अपने पड़ोस में हिंदू और ईसाई भी नहीं चाहिए।

पाकिस्तान में रहने वाले अहमदी भी मुसलमान हैं और उन्हें भी अन्य लोगों की तरह अपने धर्म का पालन करने का अधिकार मिलना चाहिए, लेकिन पाकिस्तान में 1974 में बनाए गए एक कानून के तहत इन्हें गैर मुसलमान घोषित कर दिया गया है। उनके साथ कानूनी और सामाजिक तौर पर भेदभाव होता है। एक दशक में उनके खिलाफ हमलों में तेजी आई है। वैश्विक आतंकवाद सूचकांक को देखें तो आतंकवाद का सबसे अधिक निशाना बने 10 शीर्ष देशों में से आठ मुस्लिम देश हैं। आतंकवाद के कारण सबसे अधिक हत्याएं इराक में हुई हैं, जहां 90 प्रतिशत मुस्लिम हैं। दूसरे नंबर पर अफगानिस्तान है जिसमें लगभग 99 प्रतिशत आबादी मुस्लिम है। तीसरे नंबर पर नाइजीरिया है जहां मुसलमानों की संख्या लगभग 50 प्रतिशत है। पाकिस्तान में 95 प्रतिशत से अधिक जनता मुस्लिम है। सीरिया में 80 प्रतिशत से अधिक मुसलमान हैं। यमन और सोमालिया में भी 95 प्रतिशत से अधिक मुसलमान हैं। लीबिया में भी मुसलमानों की आबादी 95 प्रतिशत से अधिक है। इन आंकड़ों से आप अनुमान लगा सकते हैं कि आतंकवाद से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले शीर्ष 10 देशों में से केवल भारत एक ऐसा देश है, जहां मुसलमानों की आबादी बहुमत में नहीं है, हालांकि वहां भी करोड़ों की संख्या में मुसलमान रहते हैं। आतंकवादी हमलों में मारे गए लोगों में से 82 से 97 प्रतिशत मुसलमान ही हैं। इस्लाम के नाम का उपयोग करने वाले आतंकवादियों के 98 प्रतिशत हमले अमेरिका और पश्चिमी यूरोप से बहुत दूर हुए हैं, और इन हमलों का सबसे बड़ा निशाना मुस्लिम देश रहे हैं।

बीबीसी की एक रिपोर्ट को आधार मानें तो 2004 से 2013 के बीच केवल इराक में 12 हजार आतंकी हमले हुए हैं। आतंकवादियों ने नारा तो ‘जिहाद’ का लगाया है लेकिन मारा केवल मुसलमानों को है। क्या इसके बाद भी किसी मुसलमान के दिल में किसी भी आतंकवादी संगठन के लिए नरमी होनी चाहिए? यह सब जानते-समझते हुए भी क्या भारत के मुसलमान आतंकियों की आलोचना करते हैं। जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों के समर्थन में वहां की मुस्लिम आबादी सैनिकों पर पत्थर फेंकती है। क्या इसे सहिष्णुता के आईने में देखा जाना चाहिए। आतंकवादी भारत में कहां पनाह पाते हैं। इस सवाल का जवाब भी तो इस देश को मिलना चाहिए। भाजपा नेता शहनवाज हुसैन तो यहां तक कह चुके हैं कि भारतीय मुसलमान अन्य देशों के मुकाबले भारत में सबसे अधिक सुरक्षित हैं। पाकिस्तान के मुसलमानों की तुलना में भारत में रहने वाले मुसलमान अधिक संपन्न है, क्योंकि धर्म का भेदभाव किए बिना संविधान के तहत भारत के प्रत्येक नागरिक के पास समान अधिकार हैं।

जहां तक बीफ पर प्रतिबंध का सवाल है तो देश के अल्पसंख्यक समुदाय को भी इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि हिंदुओं की पसंद और नापसंद क्या है? उनकी भावनाओं का सम्मान किया जाना चाहिए। ताली दोनों हाथ से बजती है। केवल हिंदू समाज ही मुस्लिम समुदाय की भावनाओं का ख्याल करे, यह कितना उचित है। सामान्य मतभेद की घटनाओं को तिल का ताड़ बनाना और इसके लिए समस्त हिंदू समाज को मुस्लिम विरोधी करार देना न तो उचित है और न ही तर्कसंगत। हामिद अंसारी ने जाते-जाते अपनी ओछी सोच का परिचय दे दिया है। अल्पसंख्यकों के विकास के लिए अटल सरकार ने सबसे पहले सोचा। मदरसों में वेतन व्यवस्था लागू की। उन्हें सरकारी अनुदान से जोड़ा। इसके बाद मोदी सरकार भी मुस्लिमों के कल्याण के लिए सचेष्ट है। अगर उन्होंने हामिद अंसारी के बयान को किसी छटपटाहट से जोड़ा है तो इसके सियासी मतलब नहीं निकाले जाने चाहिए। जब प्रधानमंत्री ने सबका साथ-सबका विकास का नारा पहले ही दे रखा है और इस दिशा में वह आगे बढ़ भी रहे हैं तो बाल की खाल निकालने वाले शोशे उछालकर नेताओं को अपना उल्लू सीधा नहीं करना चाहिए। यह देश सबका है। सब मिल-जुलकर रहें। मिलकर इस देश को आगे बढ़ाएं। देश को तोड़ने में जुटे आतंकियों का खुलकर विरोध करें। इसी में देश का हित है। हामिद अंसारी जैसे बौद्धिकों से इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वे कुछ भी कहने से पहले इतना विचार जरूर करें कि उनकी कही बात का देश के सामाजिक ताने-बाने पर क्या असर पड़ेगा? उन्हें लगे हाथ यह भी सुस्पष्ट करना चाहिए कि मुसलमान भारत में नहीं तो किस देश में इससे ज्यादा सुरक्षित हैं?

 

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

 
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