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संपादकीय
बिहार की राजनीति का उन्नीस-बीसःसियाराम पांडेय ‘शांत’
By Deshwani | Publish Date: 28/7/2017 11:48:36 AM
बिहार की राजनीति का उन्नीस-बीसःसियाराम पांडेय ‘शांत’

राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी का कोई स्थायी भाव नहीं होता। कब कौन किसके साथ खड़ा मिल जाए, कहा नहीं जा सकता। वहां उन्नीस-बीस तो चला ही करता है। अब एनडीए-नीतीश के संबंधों को ही लें तो यह 19 साल से निर्विवाद रूप से चल रहा था लेकिन प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी का विरोध करते हुए नीतीश कुमार ने एनडीए से अपनी राह अलग कर ली थी। उन्हें क्या पता था कि इतिहास एक बार फिर खुद को दोहराएगा और वे पुनश्च एनडीए के सत्ता रथ पर सवार हो जाएंगे। यही बात लालू और नीतीश के संबंधों पर भी लागू होती थी। कोई बीस साल पहले तक दोनों एक दूसरे के खास थे और इसके बाद जो खटके तो एक दूसरे के राजनीतिक दुश्मन ही बन गए। मिले तो बीस माह तक साथ सरकार भी चलाई और जुदा हुए तो एक दूसरे की खिंचाई करते नजर आ रहे हैं। यह राजनीति है। दोस्त-दुश्मन और दुश्मन दोस्त। राजनीति में असंभव कुछ भी नहीं है। चंद लम्हों में ही बिहार की राजनीतिक तस्वीर बदल गई है। वहां का सियासी परिदृश्य बदल गया। कल तक जहां नीतीश-लालू के गठबंधन वाली सरकार थी, एक दिन बाद ही वहां एनडीए नीत नीतीश सरकार है। मुख्यमंत्री कल भी नीतीश कुमार थे और आज भी वही हैं। बस उपमुख्यमंत्री का नाम और चेहरा बदल गया है। राजद के मंत्रियों की जगह अब एनडीए के मंत्री लेंगे। तेजस्वी यादव की जगह अब उपमुख्यमंत्री पद की शपथ उनके खिलाफ मोर्चा खोले बैठे सुशील मोदी ने ले ली है। 
19 साल तक भाजपा के साथ रहे नीतीश कुमार प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में जिस नरेंद्र मोदी का विरोध करते हुए एनडीए से बाहर हुए थे, महज चार साल बाद वक्त ने ऐसी पलटी मारी के वे अपने चिर विरोधी रहे नरेंद्र मोदी की गोद में बैठ गए। इन चार साल में गंगा में बहुत पानी भर गया है। भाजपा को पटखनी देने के लिए बीस माह पहले उन्होंने लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद के साथ मिलकर सरकार बनाई थी लेकिन यह केर-बेर संबंध था जिसमें एक के डोलने पर दूसरे का अंग- भंग तय था। कुछ राजनीतिक पंडितों ने इस सरकार के लंबा न चलने की घोषणा तो उसी वक्त कर दी थी। हालांकि तब उनकी राय को बहुत गंभीरता से नहीं लिया गया था लेकिन जब भ्रष्टाचार के खिलाफ असहिष्णुता की नीति अपनाते हुए उन्होंने तेजस्वी यादव से इस्तीफा लेने की बजाय खुद त्यागपत्र दे दिया तो लालू खेमे के पैरों तले से जमीन खिसक गई। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि नीतीश अपने हाथों अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने का जोखिम भी बोल ले सकते हैं। यह अलग बात है कि भाजपा ने तुरंत नीतीश को लपककर अपने पाले में ले लिया। भाजपा के इस एक निर्णय से नीतीश कुमार और भाजपा दोनों ही के हाथों में लड्डू आ गये हैं और लालू यादव सांप निकल जाने के बाद लकीर पीट रहे हैं। वे अपराध और भ्रष्टाचार पर नीतीश कुमार की असहिष्णुता पर सवाल उठा रहे हैं। उन्हें हत्या के एक मामले का दोषी बता रहे हैं। जो सवाल जीरो टालरेंस के मुद्दे पर वे नीतीश कुमार से पूछ रहे हैं, कुछ ऐसा ही सवाल जनता को उनसे और उनके परिवार से पूछना चाहिए कि जब उन्हें पता था कि नीतीश हत्यारोपी हैं तो उन्होंने बीस माह पहले बिहार में सरकार बनाने में नीतीश कुमार का साथ क्यों दिया? इस मुद्दे पर चुप्पी क्यों साधे रखी ? लालू तो नीतीश से यहां तक पूछ रहे हैं कि भ्रष्टाचार पर असहिष्णुता की बात करने वाले नीतीश कुमार को जब पता था कि लालू को चारा घोटाला मामले में सजा तक हो गई है तो उन्होंने मेरे साथ मिलकर सरकार क्यों बनाई? सवाल मौजूं है लेकिन इसका जवाब एक ही है कि जब जागे तभी सबेरा। दिन का भूला अगर शाम को घर लौट आए तो उसे भूला नहीं कहा जाता। नीतीश कुमार के साथ भी कमोबेश यही बात है।
 
बिहार में जिस महागठबंधन की बात लालू प्रसाद करते रहे, उस गठबंधन के इस तरह के हस्र की किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। नीतीश और लालू यादव के बाद दोस्ती और बिगाड़ का इतिहास बहुत पुराना है। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के दौरान लालू और नीतीश दोस्त बने थे। मार्च 1990 में जब लालू यादव पहली बार जनता दल की सरकार के मुखिया बने थे, तब उनके साथ चाणक्य की भूमिका नीतीश कुमार ने ही निभाई थी। यह अलग बात है कि चार साल बाद ही नीतीश कुमार लालू प्रसाद के साथ बगावत करने वाले जनतादल के अलग धड़े के साथ जुड़ गए थे और जार्ज फर्नांडीज के साथ मिलकर समता पार्टी का गठन किया था। 27 जुलाई, 2014 को बीस साल बाद लालू और नीतीश फिर एक हुए लेकिन बीस साल बाद बनी यह एकता लंबा नहीं चल सकी। इस एकता को सर्वप्रथम पलीता लगाया 21 जनवरी 2016 को राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने। उन्होंने राज्य की बिगड़ती कानून व्यवस्था के लिए सीधे तौर पर नीतीश कुमार को दोषी ठहरा दिया। खटास की दागबेल तो यहीं पड़ी लेकिन इस दरार को लालू के नजदीकी सांसद शहाबुद्दीन ने लालू की तरीफ और नीतीश की आलोचना कर और बढ़ा दिया। शहाबुद्दीन द्वारा खुद को परिस्थितियों का सीएम कहा जाना नीतीश कुमार को कदाचित रास नहीं आया। शहाबुद्दीन को दोबारा जेल भेजे जाने से भी नीतीश और लालू के बीच मतभेद की दीवार और मजबूत हुईं। 
 
नीतीश कुमार ने जब राज्य में शराबबंदी कानून लागू किया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो उनकी इस सामाजिक पहल को सराहा लेकिन वह लालू यादव ही थे, उनका परिवार ही था जिसने इस पहल की आलोचना की। जिस समय पाकिस्तान में देश के जांबाज सैन्य अधिकारियों ने सर्जिकल स्टाइक किया तो नीतीश कुमार ने मोदी सरकार की प्रशंसा की। समझा तो तभी जाने लगा था कि नीतीश और लालू के साथ के अब थोड़े दिन ही और बचे हैं। नोटबंदी और राष्ट्रपति चुनाव में भी नीतीश कुमार का मोदी सरकार को समर्थन लालू खेमे को रास नहीं आया। सोनिया गांधी ने बीच-बचाव की कोशिश जरूर की लेकिन गठबंधन को बचा नहीं पाईं और इसी के साथ यूपी में बनने वाले महागठबंधन की कमर भी टूट गई। अखिलेश-मायावती को साथ मिलाने की कोशिश कर रहे लालू की जड़ें अपने ही राज्य में कमजोर हो गई हैं। जो खेल वे नीतीश के साथ खेलना चाहते थे, कुछ उसी तरह का खेल नीतीश खेमे ने उनके साथ खेल दिए हैं। राजद विधायक जद यू में शामिल होने के लिए दौड़ लगाने लगे हैं। इससे अप्रिय स्थिति लालू परिवार के लिए और क्या होगी? इस निर्णय से नीतीश की डैमेज हो रही छवि में जहां सुधार हुआ है, वहीं भाजपा को बिहार में नीतीश कुमार के रूप में एक बड़ा राजनीतिक चेहरा मिल गया है। इसका लाभ उसे 2019 के लोकसभा चुनाव में मिलना तय है। 
राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी को त्यागपत्र देने के बाद नीतीश कुमार ने तो यहां तक कह दिया था कि हमने यथासंभव गठबंधन धर्म निभाया, लेकिन आज जो हालात हैं, उनमें मेरे लिए काम करना मुश्किल हो गया था। हमने इस्तीफा नहीं मांगा था। सिर्फ यही चाहते थे कि लालू यादव और तेजस्वी यादव आरोपों पर सफाई दें। गौरतलब है कि कि रेलवे टेंडर घोटाले और बेनामी प्रॉपर्टी मामले में केस दर्ज होने के बाद तेजस्वी पर डिप्टी सीएम पद से इस्तीफे का दबाव था। नीतीश कुमार के त्यागपत्र के बाद प्रधानमंत्री का ट्विट काबिलेगौर है। उसमें कहा गया है कि बिहार के उज्जवल भविष्य के लिए राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर भ्रष्टाचार के खिलाफ एक होकर लड़ना, आज देश और समय की मांग है। इसमें संदेह नहीं कि लालू प्रसाद यादव का अपने पुत्र को लेकर धार्तराष्ट्री मोह ही बिहार में राजनीतिक महागठबंधन के पतन का कारण बना। नीतीश कुमार की इस बात में दम है कि यह राजनीतिक संकट नहीं है। यह अपने आप लाया गया संकट है। आरोप लगा है तो उसका उचित उत्तर देना चाहिए था। स्थिति स्पष्ट करना चाहिए था। स्पष्ट कर देते तो हमें भी एक आधार मिलता। हमने इतने दिन इंतजार किया और समझा कि वे कुछ कहने की स्थिति में नहीं हैं, कुछ कहना नहीं चाहते। ऐसे में मैं तो जवाब नहीं दे सकता। सरकार का नेतृत्व कर रहा हूं। अगर सरकार के अंदर के व्यक्ति के बारे में कुछ बातें कही जाती हैं तो मेरे सामने सरकार चलाने का कोई आधार नहीं है। जब तक चला सकते थे, चला लिया। 
उन्होंने लालू प्रसाद यादव और उनके परिवार को यह कहकर नसीहत दी कि गलत तरीके से संपत्ति अर्जित करना ठीक नहीं होता। कफन में छेद नहीं होता। जो भी है, यहीं रहेगा। ऐसी परिस्थिति में आप समझ सकते हैं। गठबंधन और विपक्षी एकता की जहां तक बात है तो हम इसके पक्षधर रहे हैं। लेकिन इसका एजेंडा भी तो होना चाहिए। गौरतलब है कि सीबीआई ने 5 जुलाई को लालू, राबड़ी और तेजस्वी यादव के खिलाफ एफआईआर दर्ज की थी। फिर 7 जुलाई को सुबह लालू से जुड़े 12 ठिकानों पर छापे पड़ेे थे। जांच एजेंसी के मुताबिक 2006 में जब लालू रेलमंत्री थे, तब रांची और पुरी में होटलों के टेंडर जारी करने में गड़बड़ी की गई। इसके बाद तेजस्वी के इस्तीफे की मांग उठने लगी। मामला तब गरमा गया जब नीतीश कुमार की अगुआई में इस मसले पर 11 जुलाई को जेडीयू की अहम बैठक हुई। इससे पहले मई से ही लालू और उनके परिवार के खिलाफ 1000 करोड़ की बेनामी प्रॉपर्टी के आरोपों की आकर विभाग जांच कर रहा था। मीसा और उनके पति के ठिकानों पर भी छापे मारे जा चुके थे। सीबीआई की एफआइआर में नामजद डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव के इस्तीफे को लेकर भाजपा ने बिहार विधानमंडल के मॉनसून सत्र को बाधित करने की चेतावनी दे रखी थी। जदयू ने भी कई बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भ्रष्टाचार के प्रति जीरो ‘टॉलरेंस’ की बात कही। उधर, राजद इस बात पर अड़ गया था कि तेजस्वी यादव किसी भी स्थिति में इस्तीफा नहीं देंगे। ऐसे में नीतीश के सामने एक ही विकल्प था कि या तो वे जबरन तेजस्वी यादव से त्यागपत्र लेते या फिर खुद राजद को नमस्ते कहते और उन्होंने दूसरा रास्ता अपनाया। देर आयद दुरुस्त आयद। भाजपा और जदयू की यह युति बिहार को नई दिशा देगी, उसे उन्नति के शिखर पर ले जाएगी, इसकी उम्मीद तो की ही जा सकती है। केंद्र और राज्य में समान विचारधारा की सरकार होने का लाभ बिहार की जनता को मिलेगा, इसमें रंच-मात्र भी संदेह नहीं है।
(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)
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