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संपादकीय
टूट की ओर बढ़ता महागठबंधन: राजनाथ सिंह ''सूर्य''
By Deshwani | Publish Date: 4/7/2017 2:15:32 PM
टूट की ओर बढ़ता महागठबंधन: राजनाथ सिंह ''सूर्य''

 बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में वापस लौटने का माहौल बनता जा रहा है। जनता दल के महामंत्री और केंद्रीय प्रवक्ता केसी त्यागी के बयान देखने होंगे। उन्होंने दिल्ली में कहा कि आज महागठबंधन में रहने की स्थिति से ज्यादा बेहतर अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले राजग में था। फिर पटना जाकर यह बयान दिया कि हमारे मित्र हमें राजग की ओर ढकेलते जा रहे हैं। दोनों बयान इसी बात के संकेत हैं। भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकजुटता में अग्रणी भूमिका निभाने वाले शरद यादव की चुप्पी और उनकी छाया बन गए के.सी. त्यागी की लालू यादव के खेमे और कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद की इस अभिव्यक्ति पर प्रतिक्रिया स्वरूप आया है कि नितीश कुमार सैद्धांतिक पक्ष से पीछे हट गए हैं। गुलाम नबी के अनुसार, राष्ट्रपति के चुनाव में रामनाथ कोविंद को समर्थन देकर नितीश कुमार सिद्धांतहीनता का परिचय दे रहे हैं। नीतीश कुमार को यह बात शाल रही होगी, क्योंकि जब उन्होंने राजग उम्मीदवार के बजाय प्रणव मुखर्जी को समर्थन देने की घोषणा की थी, तब भारतीय जनता पार्टी ने उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की थी। गुलाम नबी आजाद के बयान पर कांग्रेस चाहे जैसी लीपापोती करे किंतु स्वयं नितीश कुमार और उनके प्रवक्ता केसी त्यागी जो अभिव्यक्ति कर रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि आजाद के बयान को उन्होंने मुख्यमंत्री के लिए ‘‘अपमानजनक’’ माना है। इस परिस्थिति में जनता दल से यह कहा जाना कि बिहार का गठबंधन 2025 तक कायम रहेगा, महज औपचारिक भर कहा जा सकता है। नितीश का पूरा राजनीतिक जीवन ‘‘लांक्षन’’ न बर्दाश्त करने को केंद्र बिन्दु बनाकर चलने का रहा हो, चाहे वह राजगकाल में नरेंद्र मोदी को लेकर रहा हो या अब मुख्यमंत्री के कथन को। इस बीच लालू यादव ने, जो दिल्ली में विपक्षी दलों की बैठक के बाद नितीश कुमार द्वारा रामनाथ कोविंद को समर्थन की घोषणा पर नथुने फुलाए हुए थे,उनका स्वर बदला हुआ है। कुनबे पर मंडरा रहे खतरे के कारण वह कहते हैं कि गठबंधन को छेनी चलाकर तोड़ा नहीं जा सकता। ऐसा बयान बयान देकर लालू सिर्फ कुनबे पर आए संकट को बचाने का उपाय भर करते दिखाई पड़ रहे हैं। उनकी और नितीश की गलबहियों में कोई जोश नहीं रह गया है, जो चुनाव के समय था, और न ही वह अनुकूलता है जो सरकार गठन में लालू के कुनबे को तरजीह देकर नितीश कुमार ने दर्शाने की कोशिश की थी।

बिहार की राजनीति में कर्पूरी युग अध्याय समाप्त होने के बाद तीन नेता उभरे- लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार और सुशील मोदी। तीनों ही विद्यार्थी जीवन और जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के फलस्वरूप लागू की गई इमरजेंसी में एक साथ जेल में भी रहे। लालू और नितीश ‘‘समाजवादी’’ होने के कारण साथ-साथ रहे जबकि सुशील मोदी विद्यार्थी परिषद की पृष्ठभूमि के कारण भाजपा नेता के रूप में उभरे। समाजवादी खेमे में खींचतान के बाद जार्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में गठित समता पार्टी में नितीश के शामिल हो जाने के बाद लालू प्रसाद यादव और नितीश कुमार के बीच मिठास समाप्त हो गई और सुशील मोदी से अंतरंगता बढ़ती गई। भले ही आज सरकार में नितीश और लालू साथ-साथ हों लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि नितीश और सुशील मोदी एक दूसरे के ज्यादा करीब हैं। लालू प्रसाद यादव के खेमे का तो यह भी आरोप है कि सुशील मोदी उनके खिलाफ बेनामी सम्पत्ति और कुनबे पर भ्रष्टाचार के जो नित्य नए खुलासे कर रहे हैं, उसकी सामग्री नितीश कुमार द्वारा ही दी जा रही है। राजग से अलग होकर सरकार बनाए रखने के लिए लालू यादव से मिला समर्थन और गठबंधन से मिली चुनावी सफलता के प्रति आगामी चुनाव में भी सफलता का बयान चाहे जो दे, यह बात स्पष्ट हो गई है कि नितीश लालू के कुनबे का बोझ उठाकर अगले चुनाव की दौड़ में आगे नहीं निकल सकते। वे बोझ उतारना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने कोविंद को समर्थन देकर पहल कर दिया है। लालू यादव नितीश के उस कदम को वापस लेने के लिए कहकर अपनी कुंठा अभिव्यक्ति भले ही कर रहे हों, उनके कुनबे और प्रवक्ताओं की अभिव्यक्ति और व्यवहार भावी स्थिति का स्पष्ट संकेत दे रहे हैं। भाजपा के खिलाफ हर मसले पर विपक्षी एकता के पुरोधा बन गए शरद यादव का नेपथ्य में चले जाना और उनकी छाया के.सी. त्यागी का राजग में सहजता तथा मित्रों द्वारा जनता दल को राजग की तरफ ढकेलने का बयान बड़ा मसला है । इसलिए उसे हलके से नहीं लिया जाना चाहिए। नितीश ऐसे माहौल की प्रतीक्षा में हैं जब लालू या कांग्रेस अलग होने की पहल करें तथा लालू यादव कुनबे पर मंडरा रहे बादल के बरस जाने के भय से मन मसोस कर नितीश की पहल की प्रतीक्षा करने पर विवश हों।

बिहार महागठबंधन में असहजता के कारण उस समय होंगे जब लालू यादव के कुनबे पर छाए भ्रष्टाचार के विविध परिणाम आने लगेंगे। आयकर या प्रवर्तन निदेशालय की जांच के फलस्वरूप लालू यादव के पुत्रों पर कार्यवाही उनके मंत्रिमंडल से बाहर होने का कारण बन सकती है। ऐसे में ‘‘नैतिकता के आधार पर’’-जो लालू यादव की राजनीतिक धारा के विपरीत है-उनके पुत्र स्वयं त्यागपत्र देकर सरकार को बचाए रखना पसंद करेंगे, या अपनी ताकत दिखाने के लिए सरकार से अलग हो जायेंगे, यह भी निर्भर करता है चारा एवं अन्य घोटालों में लालू के खिलाफ चल रही अदालती कार्यवाही के परिणाम पर। गठबंधन के टूटने की संभावना भी इसी पर निर्भर ैह कि नितीष कुमार कहते हैं कि वह भ्रष्टाचार से घिरे लोगों का बोझ नहीं उठा सकते। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बिहार के चुनाव के समय अभिव्यक्ति में उभरी विपरीतता एक वर्ष बाद ही तिरोहित होने लगी थी। राष्ट्रपति चुनाव आने तक विभिन्न मुद्दों पर शरद यादव की विपक्ष के साथ लामबंदी के विपरीत नितीश का कई मुद्दों पर केंद्रीय सरकार को समर्थन, औपचारिक या अनौपचारिक अवसरों पर नरेंद्र मोदी के साथ दिखाई पड़ने वाली उनकी सहजता को ही केसी त्यागी के राजग के साथ सहजता वाले बयान के रूप में मुखरित हुई है। नितीश कुमार दागरहित रहना चाहते हैं। उनके लंबे राजनीतिक जीवन में दाग नहीं लगा है और न वे दागियों के साथ खड़े हुए हैं। ऐसे में लालू यादव के साथ खड़े रहना उनकी दागरहित छवि को बिगाड़ने का काम कर रहा है। नितीश अपनी इस पूंजी को खोना नहीं चाहेंगे और लालू यादव पर निर्भर रहकर उनके लिए यह पूंजी बचाए रखना असंभव है। इसलिए केसी त्यागी का पटना पहुंचकर यह बयान देना बिहार में भावी समीकरण का संकेत देता है कि उनके मित्र उन्हें राजग की तरफ ढकेल रहे हैं। सत्ता संभालने के लिए बने गठबंधनों का स्थायी स्वभाव है अस्थायी होना। 1967 में कुछ कांग्रेसियों द्वारा कांग्रेस छोड़कर गैर कांग्रेसी गठबंधन बनाये गये। यह गठबंधन कहीं साल भर चला, कहीं आठ महीने। यहां तक कि अपने-अपने दलों का विलय कर देश के महादूरदर्शी नेताओं द्वारा बनी जनता पार्टी भी स्थायित्व नहीं पा सकी। जनदलों ने धीरज खोया और अधिक हड़पने के लिए ‘‘सिद्धांत’’ का वास्ता दिया। वे एक दिल के टुकड़े हजार हुए के अनुरूप बिखरते गए। इस बिखराव का सबसे रोचक इतिहास ‘‘समाजवाद’’ में आस्था रखने वाले दलों का है। केंद्र में मोदी सरकार के खिलाफ संसद और संसद के बाहर बने मोर्चे हावी होने के प्रयास में बार-बार परास्त होते रहे हैं। राष्ट्रपति चुनाव के समय शिवसेना या, पिछले चुनाव में ‘जनता पार्टी का भाजपा के साथ खड़ा होना आश्चर्यजनक अवश्य रहा पर भाजपा ने अपनी प्रतिक्रिया मुखरित नहीं की। यहां तक कि वाजपेयी सरकार से अलग होने पर डीएमके के खिलाफ उसने कुछ नहीं कहा। उसका सौहार्द बना रहा। गठबंधन भी बना रहा। नितीश कुमार का रामनाथ कोविंद को समर्थन देने पर ‘‘सेकुलर खेमा‘’ जिस तरह से उनपर टूट पड़ा है, वह राजनीतिक अपरिहार्यता का ही प्रमाण देता है। ऐसे गठबंधन का स्थायी होना असंभव है। एक और तथ्य सामने आया है वस्तु एवं सेवाकर के बहिष्कार में एकजुटता का दृश्य। जो दल रामनाथ कोविंद का विरोध कर रहे हैं उन्होंने वस्तु एवं सेवाकर समारोह का बहिष्कार किया है और जो समर्थक हैं, वे शामिल हो रहे हैं। जिस कानून को कांग्रेस ने लाने की पहल की, संसद और विधानसभाओं ने एकमत से पारित किया, जिसे प्रत्येक राजनीतिक दल ने अपना कहा, उसके लागू होने की तिथि पूर्व आयोजित अभूतपूर्व समारोह का बहिष्कार और विरोध करने की हीन मानसिकता का एक बार फिर खुलासा कर गई।

 

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य व वरिष्ठ स्तम्भकार हैं)

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