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उजाले की ओर पहला कदम
By Deshwani | Publish Date: 24/5/2018 6:05:53 PM
उजाले की ओर पहला कदम

ललित गर्ग

अक्सर देखने में आता है कि हम अपनी गलतियां नहीं देखते, पर दूसरों की गलतियों पर ज्यादा ही कठोर हो जाते हैं। होना यह चाहिए कि हम अपनी गलतियों के लिए भले कठोर हो जाएं, पर दूसरों को आसानी से माफ कर दें। यूं कभी-कभी दूसरों को परखना पड़ जाता है, पर उसके लिए जरूरी है मन का पूर्वाग्रह से मुक्त होना। लेखक क्रिस जैमी कहते हैं, ‘किसी को जानना समझना मुश्किल नहीं है। मुश्किल अपने पूर्वाग्रहों को परे रखना है।’
”हम स्वयं को नहीं देखकर दूसरों को देखते हैं“-यही समस्या है और यही बात हर क्षेत्र में लागू होती हुई दिखाई दे रही है। चाहे राजनीतिक क्षेत्र हो, चाहे सामाजिक, पारिवारिक या धार्मिक क्षेत्र हो। लेकिन अगर हम केवल स्वयं को ही देखते रहेंगे तो बहुत पिछड़ जायेंगे और केवल बाहर को देखते रहेंगे तो टूट जायंेगे। मकान की नींव देखें बिना मंजिलें बना लेना खतरनाक है पर अगर नींव मजबूत है और फिर मंजिल नहीं बनाते तो अकर्मण्यता है। स्वयं का भी विकास और समाज का भी विकास, यही सर्वांगीण विकास है। एक व्यक्ति बीज बो रहा था। दूसरे आदमी ने पूछा, ‘क्या बो रहे हो?’ उसने कहा, ‘नहीं बताऊंगा।’ पहले वाले ने कहा, ‘आज नहीं बताओगे तो क्या, जब उगेगा तब पता चल जायेगा।’ वह व्यक्ति बोला, ‘ऐसा बीज बोऊंगा जो उगेगा ही नहीं।’ यही स्वार्थ का दृष्टिकोण आज की सबसे बड़ी समस्या है। केवल अपना उपकार ही नहीं, परोपकार भी करना है। अपने लिए नहीं दूसरों के लिए भी जीना है। यह हमारा दायित्व भी है और ऋण भी, जो हमें अपने समाज और अपनी मातृभूमि को चुकाना है।
परशुराम ने यही बात भगवान कृष्ण को सुदर्शन चक्र देते हुए कही थी कि वासुदेव कृष्ण, तुम बहुत माखन खा चुके, बहुत लीलाएं कर चुके, बहुत बांसुरी बजा चुके, अब वह करो जिसके लिए तुम धरती पर आये हो। परशुराम के ये शब्द जीवन की अपेक्षा को न केवल उद्घाटित करते हैं, बल्कि जीवन की सच्चाइयों को परत-दर-परत खोलकर रख देते हैं।
रात के समय एक आदमी नौका पर चढ़ा। अंधेरा था। उसने नाव को खेना प्रारंभ किया। वह नाव को खेता रहा। कुछ उजाला हुआ। उसने सोचा, दूसरा तट आ गया। वह नीचे उतरा। देखा, यह तो वही तट है जहां से नौका पर चढ़ा था। रातभर नाव खेता रहा, पर पहुंचा कहीं नहीं। उसने ध्यान से देखा तो पता चला कि नौका एक रस्सी से बंधी है। वह उस रस्सी को खोलना ही भूल गया। जहां था वहीं का वहीं रह गया।
हम चिन्तन के हर मोड़ पर इसी तरह के भ्रम पाल लेते हैं। कभी नजदीक तथा कभी दूर के बीच सच को खोजते रहते हैं। इस असमंजस में सदैव सबसे अधिक जो प्रभावित होती है, वह है हमारी युग के साथ आगे बढ़ने की गति। राजनीति में यह स्वीकृत तथ्य है कि पैर का कांटा निकालने तक ठहरने से ही पिछड़ जाते हैं। प्रतिक्षण और प्रति अवसर का यह महत्व जिसने भी नजर अन्दाज किया, उसने उपलब्धि को दूर कर दिया। नियति एक बार एक ही क्षण देती है और  दूसरा क्षण देने से पहले उसे वापिस ले लेती है। वर्तमान भविष्य से नहीं अतीत से बनता है।
शेष जीवन का एक-एक क्षण जीना है- अपने लिए, दूसरों के लिए यह संकल्प सदुपयोग का संकल्प होगा, दुरुपयोग का नहीं। बस यहीं से शुरू होता है नीर-क्षीर का दृष्टिकोण। यहीं से उठता है अंधेरे से उजाले की ओर पहला कदम।               
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