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मानव एकांत से प्रकृति का हुआ नवनिर्माण
By Deshwani | Publish Date: 17/4/2020 8:52:10 AM
मानव एकांत से प्रकृति का हुआ नवनिर्माण

नई दिल्ली।संगीता कुमारी। आजकल मानव जाति को कोरोना वायरस ने घर के भीतर घूंटे से बांध रखा है। जैसे मनुष्य हमेशा से पशुओं को अपने हित के लिये घर के बाहर दालान में बांधकर रखता आया है। क्या कभी किसी ने सोचा था कि ऐसा भी दिन आयेगा जब मनुष्य घर के भीतर डरा सहमा बैठा रहेगा! टीवी, मोबाइल से विश्व के खबरों में राहत तलाशता फिरेगा! हाय रे उपभोगितावाद की दुनिया! सारे उपभोग को भूलकर मनुष्य केवल जिंदा रहने की चाह में मर रहा है।

अपने घरों की खिड़की से बाहर झाँककर सूनी सड़कों पर उन्मुक्त पशु जीवों को देखकर कोरोना वायरस को कोस रहा है। क्योंकि चीन के वूहान शहर से निकला कोरोना वायरस के कारण आज विश्व को आर्थिक, शारीरिक व मानसिक संकट से जूझना पड़ रहा है। मनुष्य की बेबसी शायद ऐसी भयानक कभी नहीं रही जितनी की आधुनिक तकनीकी सुख सुविधाओं के बाबजूद वर्तमान में है।

यूरोप,अमेरिका जैसे विकसित आधुनिक देशों का बहुत बुरा हाल है। क्योंकि इस रसायनिक वायरस का अभी तक कोई तोड़ नहीं मिल पाया है। क्या गरीब क्या अमीर सब पर एक समान इस चीन के कोरोना ने कहर बरपाया है। मनुष्य अपने घरों में कैद होकर आत्मचिंतन करते हुए स्वयं से प्रश्न कर रहा है कि क्या करेंगे हम ऐसा विकास करके जिसमें ‘सांस लेना मुश्किल हो जाये? मानव अहित करने वाला कूड़ा का ढेड़ पर्यावरण को नित दूषित करता जाये? गाड़ियों से निकलते धूओं से नीला सुंदर आकाश ढक जाये? पक्षी पशु जीव जंतु का जीना मुश्किल हो जाये? सुंदर नदियाँ गंदे नालों में बदल जाये? अथाह जल के होते हुए भी बूँद बूँद जल के लिये तरसा जाये? गाँवों के खुले खेत खलिहान को छोड़कर शहरों की तंग बस्ती में छोटी सी खोली में ठूस ठूसकर रहा जाये? आदि आदि’ कोरोना वायरस के कारण मानव जीवन का भौतिक चक्र मानो थम सा गया है।

मगर दूसरी तरफ सकारात्मक नजरिये से देखा जाये तो मनुष्य की मजबूरी वश के कारण आये इस ठहराव से प्रकृति मानो अपना नवनिर्माण कर रही है। करोड़ों रुपये खर्च करके भी भारत की नदियाँ स्वच्छ नहीं हुई मगर आज मनुष्य की गतिविधि रुकते ही नदियों ने स्वयं को स्वत: स्वच्छ कर लिया है। जरा सोचकर देखिये कि हम मनुष्य नदियों को पूजा के नाम पर कितना गंदा करते आये हैं।

ईक्कीस दिनों के लॉकडाउन में ही सारी नदियों का सुंदर रूप देखते ही बनता है। नदियाँ मानों एकांत पाकर ध्यान साधना करके निर्मल हो गयी हैं। नये नये पक्षी उन्मुक्त गगन में स्वच्छंद होकर एक जगह से दूसरी जगह उड़ रहे हैं। घरों की खिड़कियों दरवाजों पर आकर मनुष्यों को अपने होने का सूचक दे रहे हैं। दिल्ली जैसे शहरों के लोग भी अब अपने घरों
में बंद रहकर सुंदर सुंदर पक्षियों की आवाज के साथ उनके दर्शन कर रहे हैं।

सड़कों पर जंगली जीव बेहिचक विचरण कर रहे हैं। ये सब मनुष्यों के घरों में बंद रहने कारण प्रकृति को मिले एकांत के कारण ही हो रहा है। मानव जाति को भी प्रकृति की तरह एकांत में रहने का मौका मिला है। मगर मनुष्य तो सामाजिक प्राणी है इसलिये सामाजिक दूरी को कष्टकारक महसूस कर रहा है। बेहतर होता कि मनुष्य भी प्रकृति की तरह इस
समय मिले एकांत में अपने भीतर जमे मैल को स्वच्छ कर पाता।

प्रकृति को दूषित करते करते मानव जाति को पता ही नहीं है वो भीतर से कितना दूषित हो गया है। भौतिकतावाद में लिप्त होकर मानो भौतिक वस्तु बन गया है। कहते हैं नकारत्मक में ही सकारत्मक का बीज छिपा होता है। आज कोरोना नामक मानव विध्वंश में ही सकारात्मक का अंकुर छिपा है। जो कि प्रकृति व मानव मन में फूट रहा है। आज कोरोना वायरस के कारण समाज में संकट की घड़ी है।

बेहतर है कि कोरोना का रोना रोने कि बजाय हम सब मिलकर साहस के साथ के इसका सामना करें। मानव जाति घर पर अपने आपको पूर्णतया बंद कर लें। धीरे धीरे कोरोना वायरस का प्रकोप समाप्त हो जायेगा। हम धैर्य रखें। यह समय भी गुजर जायेगा,सामाजिक भागमभाग फिर से शुरू हो जायेगा।...


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