नई दिल्ली। संगीता कुमारी। हमने हमारे देश की शिक्षा में होते बदलाव को वर्षों से देखा है। एक समय था जब केवल लड़के ही पढ़ाई करते थे। कन्या को जन्म से ही पराया धन समझकर अभिभावक उनका पालन-पोषण करते थे। कड़ी सुरक्षा के दायरे में लड़कियां एक इज्जत का सिम्बल बनकर अपने माता-पिता के यहां रहती थीं। लड़कियों को गृह कार्य में दक्ष करके जल्द से जल्द उन्हें विवाह के बंधन में बांध दिया जाता था। जहां उन्हें इस दबावपूर्ण माहौल में अपना जीवन बसर करना पड़ता था कि वह अपने दोनों कुल की लाज बचाते हुए समाज के नियम कानून का पालन करेंगी। ऐसा वर्षॉं तक होता रहा।
अपने अस्तित्व को तलाशती बेटियां बचपन से जवानी और बुढ़ापे तक दहलीज के भीतर घुट-घुटकर जीती थीं। दहलीज पार उनकी अर्थी होती थी जिसके साथ उसके व्यक्तित्व की कुर्बानी की बातें कोई नहीं करता था। पुरुष समाज कुछ तो अपने पौरूष की हिफाजत के लिये नारी बंधन में विश्वास रखता था, तो कुछ इसलिये कि तब नारी की पवित्रता का हनन भी दबंगियों द्द्वारा कर लिया जाता था। नारी को सुरक्षा देने वाले और उसका शोषण करने वाले अधिकांश पुरुष ही थे।
दूसरी तरफ दहेज की कुप्रथा ने लड़कियों का जीवन नरक बना दिया था जिसमें दहेज के लिये प्रताड़ित करने वाली सास ननदों की भूमिका अधिक थी। आज जब हम कानूनी सुरक्षा में रहते हुए दहेज के छिटपुट केस के बारे सुनते हैं तब हमारे लहु में उबाल आ जाता है तो जरा सोच कर देखिये वर्षॉं से इस कुरीतियों को झेलने वाले परिवार पर क्या बीतती होगी! दहेज ना देने पर ससुराल वाले बहु को या तो जलाकर मार दिया करते थे या फिर उसे उसके मायके भेज दिया करते थे। विवाहित बेटी का अपने माता पिता के यहाँ लम्बे तक रहना इस बात का सूचक होता था कि उसके ससुराल वालों ने दहेज के लिये या उसके गलत आचरण के कारण छोड़ रखा होगा। आर्थिक सामाजिक मानसिक रूप से बेटी के साथ साथ-साथ माता पिता का भी जीवन जीना मुश्किल हो जाता था।
सन सत्तर के दशक के बाद से लड़कियों की शिक्षा में वृद्धि हुई। धीरे धीरे दहेज प्रथा की कुरीतियों ने पीड़ित महिला के जहन में अपनी बेटी के उजले भविष्य की चिंता जगानी शुरू कर दी। एक शिक्षाविहीन माँ अपनी नरक होती जिंदगी से सबक सीखने लगी। शिक्षा के महत्त्व को जानते हुए बेटी को ससुराल की चौखट से पहले स्कूल की चौखट पार कराने लगी। एक नयी सोच का जन्म हुआ कि बेटी पढ़ी लिखी होगी तो विपरीत परिस्थति में अपने जीवन यापन के लिये बाप भाई पर बोझ नहीं बनेगी। घर की दुखी नारी ने जब शिक्षा से मिली नौकरी का महत्त्व जाना तब बेटियों के पिता और भाईयों ने भी आगे कदम बढ़ाया।
अस्सी दशक के आसपास बेटियां गृहकार्य में निपुणता के साथ साथ स्कूली शिक्षा पर भी जोर-शोर से रुचि लेने लगी। पढ़ाई लिखाई सिलाई बुनाई कढ़ाई में घर घर की बेटियों में प्रतियोगिता होने लगी। ससुराल से दहेज के कारण दुखी नारियाँ नौकरी करके या सिलाई बुनाई कढ़ाई करके अपनी जीविका निर्वाह करने लगीं। फिर भी अस्सी नब्बे के दशक तक शिक्षा का प्रसार होने पर भी दहेज कुरीतियाँ कम नहीं हो रही थीं। कड़े से कड़े कानून बनाये गये। जिसके कारण समाज में नारी जागृति आंदोलन जैसा मुहिम चलने लगा। अधिकांश नारी साक्षरता अभियान गाँव गाँव में स्त्रियों द्द्वारा चलाया जाने लगा। सरकार भी जागरुक हुई।
ईक्कीसवीं सदी के प्रारम्भ में शिक्षा के साथ-साथ शहरों की अधिकांश बेटियाँ स्वावलम्बी होने लगी। पिछले एक दशक से माता पिता की सोच में बहुत ही ज्यादा सकारात्मक बदलाव आ गया है। अब माता पिता दहेज का लाखों धन ससुराल वालों को देने से ज्यादा प्रोफेशनल कॉलेजों को देना बेहतर समझते हैं। जनसंख्याँ के साथ साथ शिक्षित युवाओं की बाढ़ सी आ गयी है। अब दहेज लेना व देना सख्त अपराध माना जाता है इसलिये ज्यादतर रिश्ते नौकरी शुदा लड़कियों की मांग से भरे रहते हैं। आजीवन दुधारू गाय किसे पसंद नही!
आज के युग में शिक्षा ने इतनी तरक्की कर ली है कि बारहवीं व बी.ए. पढ़ी लिखी लड़की गाँव गाँव में भी मिल जाती हैं। लड़कियों के साथ एक सुविधा जुड़ी है अगर वो नौकरी नहीं भी ले पाती हैं तब भी उनका कहीं अच्छा रिश्ता हो जायेगा। लड़कों का तो नौकरी किये बगैर कुछ हो ही नहीं सकता इसलिये वो सभी संघर्ष में लगे हुए हैं। उनकी प्रतिद्दंद्दी बनी लड़कियाँ आज उन्हें नौकरी से लेकर सब मुद्दों पर पछाड़ रही हैं। ऐसा ना हो कि भविष्य में बहु लेने के लिये दहेज देना पड़ जाये!...