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भारत एक महान लोकतंत्र : संगीता कुमारी
By Deshwani | Publish Date: 2/7/2019 8:05:34 PM
भारत एक महान लोकतंत्र : संगीता कुमारी

नई दिल्ली। भारत देश का लोकतंत्र महान है। लोक अर्थात ‘जनता’ तंत्र अर्थात ‘शासन’ मतलब साफ है कि भारत में जनता का शासन है। इसलिये देश महान है। हमारे देश के नेता जो कि जनता के बीच में से चुनकर आते है वो जनता के बीच जाते हैं कभी कभी। कुछ लोंगो का कहना है कि वो जायें भी क्यों? आखिर इतनी बड़ी आबादी वाले देश में से जनता के बीच में निकलकर सत्ता तक पहुँचना कोई मामूली काम तो है नहीं! हजारों कार्यकर्ताओं की आकाक्षाओं में से कुछ ही तो हैं जो यह सुख ले पाते हैं।


ज्यादातर नेता तो ऊपर से ऊपर ही कुर्सी तक पहुँच जाते हैं। हमारे देश की यह विशेषता भी है कि धरोहर को सम्भाल कर रखा जाता है। उसके लिये अपनी पीढ़ी से बढ़कर और कौन हो सकता है भला? इसीलिये तो अभिनेता का बेटा अभिनेता व नेता नेता का बेटा नेता ही ज्यादातर बनते हैं। ये दोनों क्षेत्र ऐसे हैं कि दोनों में ही अभिनय की ज्यादा आवश्यकता होती है।अभिनेता तो फिर भी पर्दे के पीछे नाटक करता है। उसे रिटेक का मौका मिलता है। मगर नेता जी तो साक्षात जनता के मध्य डायलॉग बोलते हैं। झूठ पकड़ा ना जाये उसके लिये वर्षों मेहनत करते हैं। जनता की नब्ज टटोलते रहते हैं। रिटैक का मौका भी नहीं मिलता । अगर गलती से गलती हो जाये तो तकनीकी के जमाने में कहाँ तक सफाई देते फिरेंगे! इसलिये वो सब पहले से ही साधकर जयकारा लगाते हुए जनता के समक्ष अपने विचार रखते हैं। नेताओं के पास अनुभवों का भंडार इतना होता है कि कलाकार की कलाकारी भी कभी कभी फेल सी दिखती है।


नेता बनने से पहले बुराई मिटाने का दाबा होता है। दुखी जनता की दुखती रत पर बार बार हाथ रखकर दुखों को मिटाने का दावा होता है। जहाँ जातपात से ही वोट मिलने का आसार दिखे वहाँ जात देखकर जाति को टिकट मिलता है व जहाँ धर्म की बात हो वहाँ अधर्म मिटाने के नाम पर प्रत्यासी चुनाव लड़्ता है। आस बंधी भावुक जनता की निगाहें राम के नाम पर कभी रावण द्वारा तो कृष्ण के नामा पर कभी शकुनी के हाथों ठग ली जाती है। अभी तक तो ‘जाति धर्म जीतता है’ वोटर हार जाता है। काम होते हैं होते आयें हैं। विकास हुआ है होता आया है। वर्षॉं से भारी भरकम देश कुछ अच्छे नेताओं के द्द्वारा सजा सँवराया आया है। जब जब भ्रष्टाचार की अति हुई है आंदोलनों का विकराल रूप भी देश देखता आया है। अगर आजादी के बहत्तर वर्षों का दौर देंखे तो लगभग पच्चीस से तीस वर्षों के अंतराल में भारत देश के लोकतंत्र में दो बहुत बड़े आंदोलनों को देश की जनता ने देखा है व बढ़ चढ़कर हिस्सा भी लिया है। 


उन आंदोलनों से अनेक नये चेहरे देश की जनता के बीच में से जनता को नेतृत्व करने के लिये उभरे भी हैं। जो कि समय के साथ जनता के सहयोग से बहुत मजबूत बनते हुए कई वर्षों तक शासन भी करते आये हैं। सोचने वाली बात यह है कि क्या पहले जेपी आंदोलन से उभरे इन नेताओं की भीड़ ने वाकई देश का विकास किया था या केवल जनता की भावनाओं को अपने हित में कैश किया था। हमारे देश की जनता बहुत भोली है वह भावनाओं में बह जाती है। और अपना वोट गँवा देती है। धीरे धीरे नेताओं का हित जनता को वर्गों में बांट देता है और जनता अपने अपने विरादरी के नेताओं को सहयोग करने की आदि हो जाती है। ये आदत ही तो बहुत बुरी चीज होती है जो कि बहुत मुश्किल से पीछा छोड़ती है। पहले आंदोलन ने क्षेत्रिय पार्टियों को बहुत मजबूत बना दिया जिसका परिणाम यह निकला कि नेता सशक्त व राज्य पिछड़े हो गये। राज्यों से महानगरों की ओर तो देश से विदेश की ओर योग्यता पलायन करती गयीं

दूसरा अन्ना आंदोलन ने देश की दशा दिशा को नया मोड़ दे दिया। एक राष्ट्रीय पार्टी जहाँ बहुत मजबूत रूप में उभरी वहीं वर्षों से शासन कर रही मजबूत पार्टी दो बार से विपक्ष में बैठने लायक भी सीट नहीं बचा पायी। दिल्ली में जनता ने नेताओं को जिस मुहीम के खिलाफ दिल्ली की कुर्सी पर बिठाया वही नेता जी अपने लक्ष्य को भूल गये व जिसके खिलाफ आंदोलन करके नेता बने उसी के साथ हाथ मिलाने के लिये बेकरार नजर आते दिखते हैं। बड़ी बड़ी बातें करके जनता को मुफ्त की सेवा देना चाहते हैं। क्या देश का विकास मुफ्त की सेवा देकर होगा या मुफ्त देने के नाम पर नेता जी दुबारा सत्ता में आना चाहते हैं। दूसरी तरफ राष्ट्रीय पार्टी ‘ना खाऊँगा ना खाने दूँगा’ के तर्ज पर कभी कभी इतने बड़े सख्त कदम उठा लेती है कि जिसके कारण हमारी अधिकांश अशिक्षित जनता हाथ में मोबाईल लिये अपने नोट को गिनने व बचाने का प्रयास करती रह जाती है। भ्रष्टाचारी बड़ी बड़ी मछली छिटककर विदेश भाग जाती है और मध्यमवर्गीय पर आफत गिर जाती है। कहने को कहा जाता है चोर तो चोर है चाहे एक ने एक ही आम चुराया हो और दूसरे ने पूरा बगीचा! हकीकत में एक आम चोर पर गाज जल्दी गिर जाती है वहीं बगीचे का भारी भरकम चोर तो... कहने को तो जाति धर्म मिटाना है। मगर जाति के नाम पर धर्म के नाम पर वोट भी तो पाना है। राम बैठे हैं तम्बू में... मंदिर वहीं बनवाना है।

बिजली पानी की सुविधा सही हो रही है। सड़क बन रही रफ्तार से तो टोल टैक्स भी लगाना है। बेरोजगारी व बढ़ती जनसंख्याँ पर भी समय रहते हुए तेजी से नजर दौड़ाना है... दूसरे आंदोलन की आग धीरे धीरे ठंठी होकर पूर्णतया राजनीतिमय हो गयी है। बुराई को दूर करने के लिये स्वयं अच्छाई राजनीति की ओर मुड़ गयी है। फिलहाल देश की मजबूत सरकार के सामने कोई दूसरा विकल्प फिलहाल जनता को नजर नहीं आ रहा है। मजबूत लोकतंत्र के लिये विपक्ष की मजबूती भी जरूरी है। देश एक होता नजर आ रहा है क्योंकि वोट व टिकट बेशक एक वर्ग़ विशेष से लिया दिया गया हो मगर विश्वास जीतने हेतु लाभ सर्वप्रथम दूसरे वर्ग को दिया जा रहा है। क्योंकि अब भाषण में  ‘सबका विकास सबका साथ’ के साथ ‘सबका विश्वास’ भी जोड़ दिया गया है। फिलहाल देश सही दिशा में जा रहा है मगर फिर भी जनता को अपनी पैनी निगाह देश की दशा दिशा पर रखनी होगी क्योंकि इस समय हमारे पास ना तो मजबूत विपक्ष है ।

 
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