सियाराम पांडेय 'शांत'
सावन, शिव और सोमवार शुचिता, सौम्यता और सादगी के प्रतीक हैं। तीनों ही का प्रकृति से सीधा संबंध है। शिव प्रकृति के देवता हैं। हिमालय शिव का अधिवास है। शिव आदिदेव हैं। वे देवताओं के भी देवता हैं। अणिमादि सिद्धियों के प्रदाता हैं। विश्व के पहले वैद्य हैं। पहले योगी हैं। पहले शिक्षक हैं और प्रथम पुरुष हैं। यह सारी सृष्टि ही उनकी कृपा का विस्तार है। उन्होंने ही विष्णु को ऊॅं ,योग, नाद,अक्षर,व्याहृतियों और विंदु का ज्ञान कराया। पाणिनी व्याकरण के चौदह सूत्रों जिससे स्वर और व्यंजन बने, का उद्गम स्थल भगवान शिव का डमरू ही है। इसीलिए नाद को ब्रह्म कहा गया है। अक्षर ब्रह्म है। स्वर ब्रह्म है।
अक्षर और स्वर दोनों ही के उत्पत्तिकर्ता भगवान शिव हैं। कर्पूर की तरह गोरे हैं भगवान शंकर। उनसे अधिक गोरा धरती पर कोई है ही नहीं लेकिन खुद को ऐसा कुरूप बना लिया है कि जो देखे, वह हतप्रभ हुए बिना न रहे। विष्णु चार भुजाओं वाले हैं। ब्रह्मा चार मुख वाले हैं लेकिन भगवान शिव पांच मुखों के अधिपति हैं। 'विस्नु चारि भुज विधि मुख चारी। विकट वेस मुख पंच पुरारी।। ' लेकिन यह सब उनकी लीला मात्र है। सच तो यह है कि भगवान शिव ऊपर से जितने कठोर दिखते हैं, उतने हैं नहीं। वे बेहद सरल हैं, सहज हैं और अपने भक्तों पर शीघ्र कृपा करने वाले हैं। 'आसुतोष तुम अवघड़दानी।' भक्तों की हर विपत्ति, उनके दैहिक, दैविक, भौतिक तापों को भी दूर करने वाले हैं। उनके भक्त तो अमृत पीते हैं लेकिन उनके हिस्से का जहर वे खुद पी जाते हैं। यह उनकी भक्तवत्सलता नहीं तो और क्या है? संसार का कल्याण ही उनका अभीष्ठ है। इसकी पूर्ति के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।
समुद्र मंथन में पहले जहर निकला और फिर अमृत। विष इतना प्रबल था कि उसके ताप को सहन कर पाने में विषधर शेषनाग भी समर्थ नहीं हो सके। जहर के प्रभाव से सभी भयभीत हो उठे। तब भगवान शंकर को देवों और दैत्यों ने याद किया। प्रेम से प्रकट होने वाले और सर्वत्र व्याप्ति रखने वाले शिव तत्काल प्रकट हो गए और उन्होंने विष को अपने कंठ में धारण कर लिया। नीलकंठ कहलाए। हलाहल विष का प्रभाव कम करने के लिए देवताओं ने उनके सिर पर घड़ों से पानी डालना शुरू किया। यह एक तरह से उनका जलाभिषेक था। इसे भगवान शिव का प्रथम अभिषेक भी कह सकते हैं। उसी समय से लोक में भगवान शिव के जलाभिषेक की परंपरा चली आ रही है। जिस महीने में यह सब हुआ, वह महीना था सावन और जिस दिन उन्हें हलाहल विष के प्रभाव से, ताप से निजात मिली, वह दिन था सोमवार। इसलिए भगवान शिव को सावन और सोमवार दोनों ही प्रिय हैं। इस दिन भगवान शिव की पूजा और उपासना मुक्ति प्रदान करती है।
माता पार्वती से भगवान शिव की मुलाकात भी सावन में हुई थी। सावन और सोमवार के प्रति भगवान शिव की प्रीति का एक बड़ा कारण माता पार्वती के काली पड़ जाने और तपस्या कर फिर गौरांग होना भी है। जिस दिन माता के तन का कालापन गया और गोरी हुई, वह दिन भी सावन का सोमवार था। इस नाते सावन और सोमवार भगवान शिव को दोहरी खुशी देने वाले हैं। भगवान शिव प्रकृति के देवता हैं। पर्वतों के देवता हैं। गिरि-गह्वरों के देवता हैं। नागों के देवता हैं। यक्षों के देवता हैं। गंधर्वों के देवता हैं। वनवासियों, गिरिवासियों के देवता हैं। उन्हें महलों और अट्टालिकाओं में रहना पसंद नहीं। उनका शिष्य दशासन नहीं चाहता था कि उनके गुरु प्रकृति के बीच रहें और सर्दी, गर्मी और बरसात की पीड़ा झेलें। सो उसने उन्हें लंका ले जाने का मन बनाया। उसने कई बार इस बात की प्रार्थना भी की।
भगवान शिव नहीं माने तो अपने बलाभिमान में दशासन ने कैलाश पर्वत को ही उठाने की कोशिश की। रावण के इस दुस्साहस ने नाराज भगवान शंकर ने अपने अंगूठे से कैलाश पर्वत को जरा-सा दबा दिया। रावण का हाथ दब गया और वह त्राहिमाम-त्राहिमाम चिल्लाने लगा। शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करने लगा। भगवान शिव उस पर प्रसन्न हो गए। उस वक्त तो रावण लंका चला गया। लेकिन अपने गुरु को अपने साथ रखने की उसकी तमन्ना थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। अपनी घोर तपस्या के जरिए एक दिन उसने भगवान शंकर से लंका चलने का वरदान ले ही लिया। भगवान शिव ने कहा कि प्राणिमात्र का कल्याण ही मेरा लक्ष्य है। इसलिए मैं कैलाश छोड़कर लंका तो नहीं जा सकता, लेकिन मेरा श्रीविग्रह मेरा ज्योतिर्लिंग तुम जरूर ले जा सकते हो। मैं उसमें अपने पूर्णांश अर्थात जगज्जननी माता पार्वती के साथ विराजित रहूंगा और यह ज्योतिर्लिंग सभी कामनाओं को प्रदान करने वाला होगा। रावण पर भगवान शिव का ऐसा अनुग्रह देख देवता विचलित हो उठे। उन्होंने माता पार्वती से प्रार्थना की कि आप ही कुछ ऐसा विधान करें कि रावण कामनालिंग को लंका न ले जा सके। माता पार्वती ने आचमन के वक्त उसे इतना पानी पिला दिया कि मार्ग में ही उसे लघुशंका की इच्छा हुई।
भगवान शिव ने उससे कहा था कि जिस स्थान पर तुम शिवलिंग को रख दोगे, मैं उस स्थान से आगे नहीं जाऊंगा। वहीं स्थिर हो जाऊंगा। अपनी सुविधा के लिए उसने भगवान शिव से दो शिवलिंगों में विराजित होने की प्रार्थना की थी और दोनों ही शिवलिंगों को कांवड़ में रखकर लंका जा रहा था। लेकिन लघुशंका लगने पर वह विचलित हो उठा। एक चरवाहे को कांवड़ थमाकर लघुशंका करने लगा। जब उसे देर होने लगी तो चरवाहे ने उसी स्थान पर कांवड़ रख दी। भगवान शंकर वहीं विराजित हो गए। चरवाहे का नाम बैजू होने की वजह से उनका नाम वैद्यनाथ पड़ा। कहते हैं कि हनुमान जी कांवड़ में रखे दूसरे शिवलिंग को लखीमपुर खीरी के गोलागोकर्णनाथ में स्थापित कर आए। यहां के पंडितों की मान्यता है कि चरवाहा भगवान शिव को यहीं मिला था। लेकिन द्वादश ज्योतिर्लिंगों के स्तुतिक्रम में लिखा गया श्लोक कुछ और ही इशारा करता है।
'पूर्वोत्तरे प्रज्ज्वलिकानिधाने सदा वसंतम गिरिजासमेतं। सुरासुराराधित पादपद्मं श्री वैद्यनाथं तमहं नमामि।'
इसका अर्थ है कि जहां वैद्यनाथ मंदिर है, वह देश के पूर्वोत्तर में है और वहां निरंतर ज्योति जलती रहती है। देवघर स्थित बाबा धाम के बारे में बाद में इसी श्लोक में पाया गया गया निधाने अर्थात गया के पास लेकिन यह स्थान गया से भी बहुत नजदीक नहीं है। विषयांतर हुए बगैर यह कहना समीचीन होगा कि देश में पहली कांवड़ यात्रा रावण ने ही शुरू की थी। वह जब तक जीवित रहा तब तक कांवड़ में जल लेकर शिव का अभिषेक करता रहा। तभी से कांवड़ यात्रा का चलन शुरू हुआ। कुछ लोग कांवड़ यात्रा को श्रवण कुमार की कांवड़ यात्रा से भी जोड़कर देखते हैं। अन्नपूर्णा स्तोत्र में लिखा है कि 'माता पार्वती देवी पिता देवो महेश्वरः। बांधवाः शिवभक्ताश्च स्वदेशे भुवनत्रयम।' माता पार्वती और पिता शिव को कंधे पर लेकर चलने का भाव ही दरअसल कांवड़ यात्रा है।
यूं तो हर दिन ईश्वर के बनाए हुए हैं। हर ऋतु-मास, वर्ष और संवत्सर उसके बनाए हुए हैं और वह इस बात की घोषणा भी करता है कि 'सब मम प्रिय सब मम उपजाए'। लेकिन, फिर भी भगवान शिव को सावन अतिप्रिय है और सोमवार भी। सोम का एक अर्थ चंद्रमा और दूसरा अर्थ है अमृत। कहते हैं कि चांद में भी अमृत है और अमृत तो अमृत है ही। भगवान शिव कल्याण के देवता हैं। शिव का अर्थ होता है-कल्याण और शंकर का अर्थ होता है इंद्रियों का शमनकर्ता। शिव से बड़ा इंद्रियजयी कौन हो सकता है? जिसने अपनी इंद्रियों पर विजय पा लिया, उसके लिए संसार में कुछ भी जीतना असंभव नहीं है। शिव के तत्वदर्शन को समझना है तो प्रकृति की उपासना करनी होगी। प्रकृति के बीच जाना होगा। सावन की अहमियत समझनी होगी। मन में आह्लाद के उत्स तलाशने होंगे। सुख का स्रोत संपन्नताओं से नहीं फूटता। अभावों में ही विचारों की नई कोपलें फूटती हैं। शिव से बड़ा कल्याणकारी कोई नहीं, लेकिन शिव के लिए भक्तों से बड़ा कोई नहीं है। जो शिव को प्रिय है। सावन और सोमवार, उस दिन जो भी शिवाराधना करता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं।